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दशमस्कन्ध-१०


जनु पानी। बारंबार श्याम रति रसकी कही प्रगट करि बानी॥ वासर कल्प समान न बीतत कैसे हुँ रैनि तुलानी। सूर देखि गति गत पतंगकी अवधि जानि हरषानी॥४५॥ कल्याण ॥ राधिका गेह हरि देह वासी। और त्रिय घरन घर तनु प्रकासी॥ ब्रह्मपूरण एक द्वितीय नहिं कोऊ। राधिका सबै हरि सबै कोऊ॥ दीप सों दीप जैंसे उजारी। तैसेही ब्रह्म घर घर बिहारी॥ खंडिता वचनहित यह उपाई। कबहुँ कहुँ जात कहुँ नहिं कन्हाई॥ जन्मको सफल हरि इहै पावै। नारि रस वचन श्रवणन सुनावै॥ सूर प्रभु अनतही गमन कीन्हों। तहां नहिं गए जहां वचन दीन्हों॥४६॥ टोडी ॥ श्याम गए सुखमाके धाम। देखत हर्ष भई मनवाम॥ आतुर मंदिर गए समाइ। प्यारी प्रेम उठी झहराइ॥ श्याम भामिनी परम उदार। कोककला रस करत विचार॥ बोलत पिय नहिं आवति पास। गद्गद बानी कहति उदास॥ धाइ जाइ पति अंकम लाह। हाहा कहि कहि लेत बलाइ॥ आति आतुर पतिके गति काम। कहा प्रकृति पाई यह वाम॥ वांह गहत कीन्हों धनमान। तब हरिकीन्हे एक सयान॥ तब प्यारी चरणन शिरधारी। काम व्यथा जान्यो सुकुमारी॥ अल्प हँसी मुख हेरि लजानी। सूरज प्रभु त्रिय मनकी जानी॥४७॥ गुंडमलार ॥ श्याम कर भामिनी मुख सँवारयो। बसन तनु दूरि करि सबल भुज अंकभरि कामरिस वाम परि निदरिधारयो॥ अधर दशनन भरे कठिन कुच उरलरे परे सुख सेज मन मुरछि दोऊ। मनो कुँभिलाइ रहे मैन से मल्लदोउ कोक परवीन घटि नहीं कोऊ। अंग विह्वल भए नैन नैनन नए लजि राति अंत त्रिय कंत भारी। सूर धनि धन्य सुखमा नारि वश श्याम याम युग भई पतिते नन्यारी॥४८॥ विहागरो ॥ चंद्रावली श्याम मग जोवति। कबहुँ सेज करझारि सँवारति कबहुँ मलयरज भोवति॥ कबहुँ नैन अलसात जानिकै जल लै लै पुनि धोवति। कबहुँ भवन कबहूं आँगन ह्वै ऐसे रैनि विगोवति॥ कबहुँक विरह जरति अति व्याकुल आकुलता मनमो अति। सुरश्याम बहु खन रवन पिय यह कहि तब गुण तोमदि॥४९॥ ललित ॥ ऐसेहि ऐसेहि रैनि विहानी। चंद्रमलीन चिरैया बोलीं सुनी कागकी बानी॥ वे लुब्धे अनतहिं काहूके मनकी आश भुलानी। कपटी कुटिल कूर कहा जानै श्याम नाम जिय आनी॥ कोकिल श्याम श्याम अलि देखो श्याम रंगहे पानी। श्याम जलद आदि श्याम कहावत सूरश्याम सों बानी॥५०॥ गुंडमलार ॥ वाम संग श्याम त्रययाम जागे। कोक विद्या निपुण सकल गुण मेष पुन सुरति संग्राम जुरि नहीं भागे॥ अंग आलस भरे नैन निद्रा ढरे नेक सेज्यापरे निशावीती। सूर प्रभु नंदसुत चले अकुलाइके गए ता धाम रसकाम जीती॥५१॥ विभास ॥ चंद्रावलि धाम श्याम भोर भए आएजू। इत रिस करि रही वाम रैनि जागी चारि याम देख्यो जो द्वार कान्ह ठाढे सुखदायेजू॥ मंदिरते रही निहारि मनही मन देत गारि ऐसे कपटी कठोर आए निशि बीते। रिस नहिं सकी सँभारि बैठी चढि द्वार नारि ठाढे गिरिधारि निरखि छबि नख शिखहीते॥ बिनु गुनवनी हृदय माल ता बिच नख छत रसाल लोचन दोउ दरशिलाल जैसी रिस गाढी। जावक रँग लग्यो भाल बदन भुज पर विसाल पीक पलक अधर झलक वाम प्रीति गाढी॥ क्यों आए कौन काज नाना करि अंग साज उलटे आभूषण श्रृंगार निरखतहौ जाने। ताहीके जाहु श्याम जाके निशि बसे धाम मेरे गृह कहा काम सूरदास गाने॥५२॥ बिलावल ॥ तहीं जाहु जहिं रैनि बसेहो। काहेको दाहन हो आए अंग अंग देखति चिह्न जैसेहो॥ अरगजे अंग मरगजी माला वसन सुगंध भरेसेहो। काजर अधर कपोलन वंदन सोचन अरुन धरेसहो॥ पलकनि पीक मुकुर लै देखो एकोनहौ अनैसेहो। सूरदास प्रभु