देखो सोभासिंधु समाति। श्यामा श्याम सकल निशिरस वश जागे होत प्रभात॥ लै पाहन सुतकर सन्मुखदै निरखि निरखि मुसुक्यात। अचरज सुभग वेद जल जातक कनक नील मणिगात॥ उदित जराउ हार पंचति अरविससि किराने तहां सेदुरात। चंचल खग वसु असूकंजदल सोभा वरणि नजात॥ चारि कीर पर पारस विद्रुम आनि अलीगण खात। सुखकी राशि युगल मुख ऊपर सूरदास बलिजात॥१७॥ रामकली ॥ देख सखी पंच कमल द्वै शंभु। एक कमल ब्रज ऊपर राजत निरखत नैन अचंभु॥ एक कमल प्यारी कर लीन्हें कमल सुकोमल अंग। युगल कमल सत कमल विचारत प्रति न कबहूँ भंग॥ षटजु कमल मुख सन्मुख चितवत बहुविधि रंगत रंग। तिनमें तीनि सोमवंशी वश तीनि शाप शुक अंग॥ जेइ कमल सनकादिक दुर्लभ जिनहीं
निकसी गंग। तेई कमल सूर नित चितवत निपट निरंतर संग॥१८॥ नट ॥ देख सखि चारि चंद्र इकजोर। निरसति बैठि नितंबिनि पिय सँग सार सुताकी ओर॥ द्वै शशि श्याम नवल घन सुंदर द्वै कीन्हें विघि गोर। तिनके मध्य चारि शुक राजत द्वै फल आठ चकोर॥ शशि मुसंग परवाल कुंद कलि अरुझि रह्यो मनमोर। सूरदास प्रभु अति रतिनागर बाल बलि युगल
किसोर॥१९॥ नट ॥ देखरी प्रगट द्वादशमीन। षट इंदु द्वादशतरणि सोभित विमल उडुगनतीन॥ षटअष्ट अंबुज कीरषटमुख कोकिला सुर एक। दश दोइ विद्रुम दामिनी षट तीनिव्याल विशेक॥ त्रिवलि षट श्रीफल विराजत परस्पर बर नारि। ब्रज कुँअरि गिरिधर कुँवर पर सूर जन बलिहारि॥२०॥ नट ॥ दंपति कुंज द्वार खरे। शिथिल अंग मरगजे अंबर अतिही रूप भरे॥ सुरतही सब रैनि वीती कोक पूरण रंग। जलद दामिनि संग सोहत भरे आलस अंग॥ चकृत ह्वै ब्रजनारि निरखत मनो चंद्र चकोर। सूर प्रभु वृषभानुतनया विलसि रतिपति जोर॥२१॥ ललित ॥
सघन कुंजते उठे भोरही श्यामा श्यामखरे। जलदनवीन मिली मानो दामिनि बरषि निशा उसरे॥ शिथिल वसन तनु नील पीत दुति आलस युत पहिरे। श्रमजल बूंद कहूं कहुँ उडुगण वदरन वरन करे॥ भूषन विविध भांति मडवारी रति रस उमाँग भरे। काजर अधर तमोर नैन रँग अँग अँग झलक परे॥ प्रेमप्रवाह चली मनो सरिता दूदी माल गरे। सोभा अमित विलोकि सुर प्रभु क्यों सुखजात तरे ॥२२॥ बिलावल ॥ राजत दोउ निकुंज खरे। श्यामा नवल किसोर पिय नवरँग अति अनुराग भरे॥ अति सुकुमार सुभग चंपक तनु भूषण मृगन अरे। मर्कत कमल शरीर सुभग हार रति जिय वेषकरे॥ चंचित चार कमल दल मानो पियके दशन समाति। मुख मयंक मधु पियत करत कसि ललना तऊ न अघाति॥ लाजत मदन दुराइ मधुन मृदु मुसकनि मन हरिलेत। छूटी अलक भुअंगनि कुचतट पैठी त्रिवलि निकत॥ रिस रुचि रंग वरहके मुखलौं
आने सोम समेति। प्रेम पियूष पूरि पोंछति पिय इत उत जान न देति॥ बदन उघारि निहारि निकट करि फ्यिके आनि घरे। विष संका नख रहत मुदित मनो मनसिज ताप हरे। युगल किसोर चरण रज वंदौं सूरज शरन समाहि। गावत सुनत श्रवण सुखकारी विषदरीत दुरिजाहि॥२३॥ नट ॥ जो सुख श्याम प्रिया सँग कीन्हों। सो युवतिन अपनोहि कार लीन्हों॥ दुविधा
हृदय कछू नहिं राख्यो। अति आनंद वचन मुख भाष्यो॥ इहै कहति तब की अब नीके। सकुचि हँसी नागरि सँग पीके। नैनकोर पिय हृदय निहारयो। उन पहिलेहि पीताँबर धारयो॥ सूरदास इह लीला गावै। हरिपद शरन अक्षै फल पावै ॥२॥ नट ॥ धनि ब्रजसुंदरी धनि श्याम। धन्य धन्य वृषभानुतनया राधिका जेहि नाम॥ गेह गेहनि गई तरुनी श्याम गए नँदधाम।
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सूरसागर।