फूलनकी सेज्या फूले कुंजविहारी फूली राधाप्यारी। फूले वै दंपति नवल मगन फूले फूले करैं केलि न्यारी न्यारी॥ फूली लता बेलि विविध सुमन गण फूले आनन दोउहैं सुखकारी। सूरदास प्रभु प्यारी पर वारत फूले फूल चंपकवेलि निवारी॥७॥ धनाश्री ॥ आजु रंग फूले कुँवर कन्हाई।
कबहुँक अधर दशन भरि खंडित चाखत सुधा मिठाई। कबहुँक कुचकर परसि कठिनअति तहां बदन परसावत। मुख निरखति सकुचति सुकुमारी मनहीमन अतिभावत॥ तब प्यारी मुखगहि कर टारति नैक लाज नहिं आवत। सूरदास प्रभु कामशिरोमणि कोककला देखरावत॥ ॥८॥ रागविहागरो ॥ देखे सात कमल इकठौर। तिनको अति आदर देवेको धाय मिले द्वै और॥ मिलत मिले फिर चलत न विछुरत अबलोकत यह चाल। न्यारे भए विराजतहैं सब अपने सहज सनाल॥ हरि तम श्याम निशा निशनायक प्रगटहोत हँसिबोले। चिबुक उठाय कह्यो अब देखो अजहुँ रहति अनबोले॥ इतनी जतन किए नँदनंदन तब वह निठुर मनाई। भरिके अंक सूरके स्वामी पर्यकपरि ह्वां आई॥९॥ केदारो ॥ पियको भावति राधा नारि। उलटि चुंबन देति रसिकन सकुच दीन्हींडारि॥ परस्पर दोउ भरे श्रमजल फूँकि फूक झुरात। मनो बूझि अनंग ज्वाला प्रगट करतलजात॥ बहुरि उठे सँभारि भट ज्यों अंग अनँग सँभारि। सूरप्रभु वन धाम विहरत वने दोउ बरनारि॥१०॥ रामकली ॥ विहरत वन दोउ मन इक करे। एक भाव इक भए लपटिकै उर उर जोरि धरे॥ मनोसुभट रणएक संग जुरि करिवर नहीं डरे। अधर दशन छत नख छत उर पर घायन फरहि परे॥ यह सुख यह उपमा पटतरको रति संग्राम लरे। सूरसखी निरखत अंतर भई रति पति काजसरे॥११॥ आजु अति शोभित हो घनश्याम। मानहुँ हैं जीते नँदनंदन मनसिज सो संग्राम॥ मुकुलित कच न समात मुकुट में रोष अरुण दोउ नैन। श्रम सूचत मानो आलस गति बोलत बनत न बैन॥ नखछत शोणित प्रस्वेद गातते चंदन गयो कछु छूटि। मदन सुभट केसर सुदेश मनु लगे कवच पट फूटि॥ दशन अंक पर प्रगट पीकमनो सन्मुख सहै प्रहार। सूरदास प्रभु परमसूर मैं जाने नंदकुमार॥१२॥ कल्याण ॥ सकुचि मन परस्पर बसन लीन्हे। प्यारी पिया निपुन कोकगुन कला में उनि धनाहि कंत अबल कीन्हे॥ स्वेदकन गंड मंडलनि नाशानि तट पिय निरखि पीत पट पोंछि डारयो। निरखि प्यारी पोंछि वै सही पियवदन कछु सकुच कछु हरषि के निहारयो॥ नागरी डरन पिय पीत पट उर धरे बहुरि जिनि आपनी छाँह देषै। सूर प्रभु स्वामिनी अंग छबि दामिनी झलक प्रतिबिंब परमान भेषै॥१३॥ रामकली ॥ सँग राजति वृषभानुकुमारी। कुंज सदन कुसुमनि सेज्यापर दंपति सोभा भारी॥ आलस भरे मगन रस दोऊ अंग अंग प्रति जोहत। मनहुँ गौर श्यामल शशि उत्तम बैठे सन्मुख सोहत॥ कुंजभवन राधा मनमोहन चहूं पास ब्रजनारी। सूर रही लोचन इकटक करि डारति तन मन वारी॥१४॥ नट ॥ इकटक रही नारि निहार। कुंज घर श्रीश्याम श्यामा बैठे करत बिहार॥ नैन सैन कटाक्ष सों मिलि करत रंग विलास। नहीं सोभा पार पावति वचन मुख सुख हास॥ तरुनि श्रीवृषभानुतनया तरुन नंदकुमार। सूर सो क्यों वरणि गावै रूप रस सुखसार॥१५॥ धनाश्री ॥ चितै राधा रति नागर ओर। नैन बदन छबि यों उपजत मनो शशि अनुराग चकोर॥ सार सरस अचवनको मानो तृषित मधुप युग जोर। पान करत कहुँ तृप्ति न मानत पलक न देत अकोर॥ लिये मनोरथ मानि परस्पर जानि गई भयो भोर। सूरश्याम श्यामा आपुसमें करत रहत चितचोर॥१६॥ बिलावल ॥
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दशमस्कन्ध-१०
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