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सूरसागर।


मन गहरानी॥ इकटक चितै रही प्रतिबिंबहि सौति शाल जिय जानी। सूरदास प्रभु तुम बडभागी बडभागिनि जेहि आनी॥६५॥ प्यारी सांच कहतिकी हाँसी। काहेको इतनो रिस पावति कत तुम होहु उदासी॥ पुनि पुनि कहति कहा तबहीते कहा ठगी सो ठाढी। इकटक चितै रहीहिरदै तन मनो चित्र लिखि काढी। समुझी नहीं कहा मन आई मदन त्रसै तुम आगे। सूरश्याम भए काम आतुरे भुजा गहन पिय लागे॥६६॥ मोहिं छुवौ जिनि दरि रहौजू। जाको हृदय लगाइ लई है ताकी वाँह गहौजू॥ तुम सर्वज्ञ और सब मूरख सो रानी अरु दासी। मैं देखति हृदय वह बैठी हम तुमको भइ हांसी॥ वांह गहत कछु शरम न आवत सुख पावत मनमाहीं। सुनहु सूर मोतनको इकटक चितवति डरपति नाहीं॥६७॥ बिलावल ॥ कहा भई धनि बावरी कहि तुमहिं सुनाऊं तुमते कोहै भावती को हृदय बसाऊं॥ तुमहिं श्रवण तुम नैनहो तुम प्राणअधारा। वृथा क्रोधत्रिय क्यों करौ कहि बारंबारा॥ भुजगहि ताहि बतावहू जो हृदय बतावति। सूरजप्रभु कहै नागरी तुमते को भावति॥६८॥ नट ॥ माधौ नाहिंन डराति जो हृदय बसति। ऐसी ढीठ मेरे जानि तुमहि कीन्हीहै कान्ह मोसों सन्मुख देखत्ति न त्रसति॥ झुके झुकति भाल भ्रुकुटी कुटिल किये रूखीह्वै रहत हँसते हँसति। तबहीते इकटक चितवत और सिसकत हौं डरते उत नधसति॥ जाही सों लगत नैन ताही खगत वैन नख शिखलौं सबगात ग्रसति। जाके रंग राचे हरि सोईहै अंतर संग काँचकी करोतीके जल ज्यों लसति॥ विहँसि बोले गोपाल सुनिरी ब्रजकीबाल उछंग लेत कत धरणि खसति। अपनी छाया निहारि काहेको करति आरि कामकी कसोटी सर कर्षते कसति॥६९॥ कान्हरो ॥ काहेको हो बात बनावत। अब तुमको पिय मैं पत्याति हौं अपनी धरणि बतावत॥ वा देखत हमको तुम मिलिहौ काहेको ताको अनखावत। जैहै कहूं निकास हिरदैते जानि बूझि तेहि क्यों उचटावत॥ जो वह कहै करो तुम सोई कहा मोहिं पुनि पुनि समुझावत। सुरक्ष्याम नागर वह नागरि भले भले जू मोहिं खिझावत॥७०॥ ॥ गुंडमलार ॥ वृथा हठ दूरि किनि करौ प्यारी। कहा रिस करति ह्यां छांह अपनी देखि उरको उनहीं रिस जरति भारी॥ तुमहिं धन रहति मन नैनमें तुव बसति कनक सो कसिलेहु कहा बैठी॥ चतुराई कहांगई बुद्धि कैसी भई चूक समुझे बिना भौंह ऐठी॥ यह सुनत रिसभरी रही नहिं तहाँ खरी ओटह्वै झरि हरी मानुकीन्हौं। जाहु मन कह्यो मैं बहुत सुख लह्यो सौति देखराय मोहिं सुर दीन्हो॥७१॥ राग कल्याण ॥ कियो अतिमान वृषभानुवारी। देखि प्रतिबिंब पिय हृदयनारी॥ कहाह्यां करत लैजाहु प्यारी। मनहिमन देत अति ताहिगारी॥ सुनत यह वचन पिय विरह बाढो। कियो अति नागरी मानगाढो॥ कामतनु दहत नहिं धीरधारै। कबहुँ बैठत उठत बारबारै। सूर अतिभए व्याकुल मुरारी। नैनभरिलेत जलदेत ढारी॥७२॥ विहागरो ॥ मानकरयो त्रिय विन अपराधहि। तनुदाहति बिनकाज आपनो कहत डरत जिय बादहि॥ कहारही मुख मूंदि भामिनी मोहिं चूक कछु नाहीं। झझकि रही क्यों चतुर नागरी देखि आपनी छाहीं॥ अजहूं दूरि करो रिस उरते हृदये ज्ञान विचारौ। सूरश्याम कहि कहि पचिहारे हठ कीन्हों जिय भारौ॥७३॥ सोरठ ॥ काम श्याम तनु चटप कियो। मनो धरयो नागरि जिय गाढो सूख्यो कमल हियो॥ व्याकुल भए चले वृंदावन मिली दूतिका आनि। बारबार हरि बदन निहारति सकै न दुख पहिचानि॥ कैसी दशा आजु मैं देखाति कहो न मोहिं सुनाइ। सूरश्याम देखे तुम व्याकुल आए कहा गँवाइ॥७४॥ गौरी ॥ व्याकुल वचन कहत हैं श्याम। वृथा नागरी मान बढायो जोर कियो तनु काम॥