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दशमस्कन्ध-१० (३६३) । भुवन राइ ॥ अक्षर अच्युत निर्विकार निरंकार है जोई । आदि अंत नहिं जानिअत आदि अंत प्रभु सोई ॥ श्रुति विनती कार को सर्व तुमही हो देवा । दूरि निरंतर तुमहिं हो तुम निज जानत भेवा ॥ या विधि बहुत स्तुति करी तव भइ गिरा अकास । मांगो वर मनभावते पुरखो सो तुम आस ॥ श्रुतिन कह्यो करजोरि सने आनंद देह तुम । जो नारायण आदि रूप तुम्हरी सो लखी हम ॥ निर्गुण रहित जो निज स्वरूप लख्यो न ताको भेव । मनं वाणी ते अगम अगोचर देखरावह सो देव ॥ वृंदावन निजधाम कृपाकार तहां देखायो। सब दिन जहां वसंत कल्पवृक्षनसों छायो॥ कुंज अद्भुत रमणीक तहां वेलि सुभग रही छाइ। गिरि गोवर्धन धातमें झरना झरत सुभाइ ॥ कालिद्रीजल अमृत प्रफुलित कमल सुहाइ । नगन जरित दोउ कूल हंस सारस तहँ छाइ ॥ क्रीडत श्याम किसोर तहां लिये गोपिका साथ । निरखि सो छवि श्रुति थकित भए तव वोले यदुनाथ ॥ जो मन इच्छा होइ कहो सो मोहिं प्रगट कर। पूरण करों सो काम देउँ तुमको मैं यह घर ॥ श्रुतिन कह्यो वै गोपिका केलि करें तुम संग। एवम- स्तु निज मुख को पूरण परमानंद ॥ कल्पसार सतब्रह्मा जब सब सृष्टि उपावै । अरु तेहि लोग न वर्ण आश्रमके धर्म चलावै ॥ बहुरि अधर्मी होहिं नृप जग अधर्म वढि जाइ । तब विधि पृथ्वी सुरसकल करें विनय मोहिं आइ ॥ मथुरा मंडल भरतखंड निजधाम हमारो । धरौं तहां मैं गोप भेप सो पंथ निहारौ ॥ तव तुम होइकै गोपिका करिहो मोसों नेह । करौं केलि तुमसों सदा सत्य वचन मम येह ॥ श्रुति सुनिकै हरिवचन भाग्य अपनी बहुमानी । चितवन लागे समय दिवससो जात न जानी।भारभयो जब पृथ्वी पर तब हरि लियो अवतार । वेद ऋचा होइ गोपिका हरिसों कियो विहार ॥ जो कोइ भरता भाव हृदय धरि हरिपद ध्यावे । नारि पुरुष कोउ होइ श्रुति ऋचा गति सो पावै ॥ तिनके पद रज जो कोई वृंदावन भूमि माहि। परसै सोऊ गोपिका गति पावे संशय नाहि ॥ भृगु ताते मैं चरण रेणु गोपिनकी चाहत । श्रुति मति वारंवार हृदय अपने अवगाहत ॥ यह महिमा रज गोपिकाकी जब विधि दई सुनाइ । तब भृगु आदिक ऋषि सकल रहे हरिपद चितलाइ ॥ सर्वशास्त्रको सार इतिहास सर्व जो। सर्व पुराणको सार युत श्रुति नको ॥ वंदनरज विधि सवै कयो विधि दियो ऋपिन्ह वताइ । व्यास त्रिपद पावनपुराण कह्यो सूर सोइ अब गाइ ॥६३ ॥ गूजरी ॥ श्यामा श्यामके उरवसी । रैनि नृत्यत रिझै पियमन तडित ते छवि लसी ॥ श्यामतारस मगन डोलत सब त्रियन में जसी । कोककलाप्रवीन सुंदार कंत गुण कर कसी ॥ करत सदन शृंगार बैठी अंग अंग प्रति रसी। सूर प्रभु आए अचानक देखि तिनको हँसी ॥६॥रामकली। पिय निरखत प्यारी हँसि दीन्हों । रीझे श्याम अंग अंग निरखत हास नागार उरलीन्हो ॥ आलिंगनदै अधर दशन खडि करगहि चिबुक उठावत । नासा सों नासा ले जोरत नैन नैन परसावत ॥ यहि अंतर प्यारी उर निरख्यो झझकि भई तब न्यारी। सूरश्याम मोको दिखरावत उर ल्याए धार प्यारी ॥६३ ॥ अथ राणको मान ॥ राग टोडी ॥ अव जानी पिय बात तुम्हारी । मोसों तुम मुहँकी मिलवतही भावतिहै वह प्यारी ।। राखे रहत हृदय परजाको धन्य भाग्यहैं ताके । ऐसी कही लखी नहिं अवलौं वश्य भएहो याके। भलीकरी यह बात जनाई प्रगट देखाई मोहिं । सूरश्याम यह प्राणपियारी उरमें राखी पोहि ॥ धनाश्री ॥६४॥ सुनत श्याम चकृत भए वानी । प्यारी पिय मुख देखि कछुक हँसि कछुक हृदय : रिस मानी ।। नागरि हँसति हँसी उर छाया तापर अति झहरानी । अपर कंपरिस भौंह मरोरचोमनही