भुवन राइ॥ अक्षर अच्युत निर्विकार निरंकार है जोई। आदि अंत नहिं जानिअत आदि अंत प्रभु सोई॥ श्रुति विनती करि को सर्व तुमही हौ देवा। दूरि निरंतर तुमहिं हौ तुम निज जानत भेवा॥ या विधि बहुत स्तुति करी तब भइ गिरा अकास। मांगो वर मनभावते पुरखो सो तुम आस॥ श्रुतिन कह्यो करजोरि सने आनंद देह तुम। जो नारायण आदि रूप तुम्हरी सो लखी हम॥ निर्गुण रहित जो निज स्वरूप लख्यो न ताको भेव। मनं वाणी ते अगम अगोचर देखरावहु सो देव॥ वृंदावन निजधाम कृपाकरि तहां देखायो। सब दिन जहां वसंत कल्पवृक्षनसों छायो॥ कुंज अद्भुत रमणीक तहां बेलि सुभग रही छाइ। गिरि गोवर्धन धातमें झरना झरत सुभाइ॥ कालिंद्रीजल अमृत प्रफुलित कमल सुहाइ। नगन जरित दोउ कूल हंस सारस तहँ छाइ॥ क्रीडत श्याम किसोर तहां लिये गोपिका साथ। निरखि सो छबि श्रुति थकित भए तब बोले यदुनाथ॥ जो मन इच्छा होइ कहो सो मोहिं प्रगट कर। पूरण करों सो काम देउँ तुमको मैं यह बर॥ श्रुतिन कह्यो ह्वै गोपिका केलि करैं तुम संग। एवमस्तु निज मुख कह्यो पूरण परमानंद॥ कल्पसार सतब्रह्मा जब सब सृष्टि उपावै। अरु तेहि लोग न वर्ण आश्रमके धर्म चलावै॥ बहुरि अधर्मी होहिं नृप जग अधर्म बढि जाइ। तब विधि पृथ्वी सुरसकल करैं विनय मोहिं आइ॥ मथुरा मंडल भरतखंड निजधाम हमारो। धरौं तहां मैं गोप भेष सो पंथ निहारौ॥ तब तुम होइकै गोपिका करिहो मोसों नेह। करौं केलि तुमसों सदा सत्य बचन मम येह॥ श्रुति सुनिकै हरिवचन भाग्य अपनी बहुमानी। चितवन लागे समय दिवससो जात न जानी॥ भारभयो जब पृथ्वी पर तब हरि लियो अवतार। वेद ऋचा होइ गोपिका हरिसों कियो बिहार॥ जो कोइ भरता भाव हृदय धरि हरिपद ध्यावै। नारि पुरुष कोउ होइ
श्रुति ऋचा गति सो पावै॥ तिनके पद रज जो कोई वृंदावन भूमि माहिं। परसै सोऊ गोपिका गति पावे संशय नाहिं॥ भृगु ताते मैं चरण रेणु गोपिनकी चाहत। श्रुति मति बारंबार हृदय अपने अवगाहत॥ यह महिमा रज गोपिकाकी जब विधि दई सुनाइ। तब भृगु आदिक ऋषि सकल रहे हरिषद चितलाइ॥ सर्वशास्त्रको सार इतिहास सर्व जो। सर्व पुराणको सार युत श्रुति नको॥ वंदनरज विधि सबै कह्यो बिधि दियो ऋषिन्ह बताइ। व्यास त्रिपद बावनपुराण कह्यो सूर सोइ अब गाइ॥६१॥ गूजरी ॥ श्यामा श्यामके उरवसी। रैनि नृत्यत रिझै पियमन तडितते छबि लसी॥ श्यामतारस मगन डोलत सब त्रियन में जसी। कोककलाप्रवीन सुंदार कंत गुण कर कसी॥ करत सदन श्रृंगार बैठी अंग अंग प्रति रसी। सूर प्रभु आए अचानक देखि तिनको हँसी॥६२॥ रामकली ॥ पिय निरखत प्यारी हँसि दीन्हों। रीझे श्याम अंग अँग निरखत हँसि नागार उरलीन्हो॥ आलिंगनदै अधर दशन खंडि करगहि चिबुक उठावत। नासा सों नासा लै जोरत नैन नैन परसावत॥ यहि अंतर प्यारी उर निरख्यो झझकि भई तब न्यारी। सूरश्याम मोको दिखरावत उर ल्याए धरि प्यारी॥६३॥ अथ राणको मान ॥ राग टोडी ॥ अब जानी पिय बात तुम्हारी। मोसों तुम मुहँकी मिलवतहौ भावतिहै वह प्यारी॥ राखे रहत हृदय परजाको धन्य भाग्यहैं ताके। ऐसी कहौ लखी नहिं अबलौं वश्य भएहौ याके॥ भलीकरी यह बात जनाई प्रगट देखाई मोहिं। सूरश्याम यह प्राणपियारी उरमें राखी पोहिं॥ धनाश्री ॥६४॥ सुनत श्याम चकृत भए वानी। प्यारी पिय मुख देखि कछुक हँसि कछुक हृदय रिस मानी॥ नागरि हँसति हँसी उर छाया तापर अति झहरानी। अधर कंपरिस भौंह मरोरयो मनही
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दशमस्कन्ध-१०