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दशमस्कन्ध-१०


भागवत प्रगट करि गायो कछू न दुविधा राखी। सूरदास ब्रजनारि संग हरि मांगी करहिं नहीं कोउ काखी॥५४॥ कान्हरो ॥ धनि शुक मुनि भागवत बखान्यो। गुरुकी कृपा भई जब पूरण तब रसना कहि गान्यो॥ धन्य श्याम वृंदावनको सुख संत मयाते जान्यो। जो रस रास रंग हरि कीन्हें वेद नहीं ठहरान्यो॥ सुर नर मुनि मोहित सब कीन्हे शिवहि समाधि भुलान्यो। सूरदास तहां नैन बसाए और नकहूँ पत्यान्यो॥५५॥ धनाश्री ॥ शरद सोहाई आई राति। दह दिशि फूलि रही बन जाति॥ देखि श्याम मन अति सुख भयो*शशिगो मंडित यमुना कूल। बरषत विटप सदा फल फूल॥ त्रिविध पवन दुखदवनहै*श्रीराधा रवन बजायो बैन। सुनि ध्वनि गोपिन उपज्यो मैन॥ जहां तहांते उठि चलीं*चलत न काहुहि कियो जनाब। हरि प्यारी सों बाढ्यो भाव॥ रास रसिक गुण गाइहो॥१॥ घर डर बिसरयो बढ्यो उछाह। मन चीते हरि पायो नाह॥ ब्रजनायक लायक सुने*दूध पूतकी छांडी आश। गोधन भरता करे निराश॥ साँचे हित हरिसों कियो*खान पान तनुकी न सँभार। हिलग छँडाई गृहं व्यवहार॥ सुधि बुधि मोहन हरिलई*अंजन मंजन अँगन श्रृंगार। षट भूपण छूटे शिरबार॥ रास रसिक गुण गाइहो ॥२॥ एक दहाबतते उठि चली। एक सिरावत मग महँ मिली॥ उतसहकंठा हरिसों बढी*उफनत दूध न धरयो उतारि। सीझी थूली चूल्हे दारि॥ पुरुप तातज्यों जेवतहते*पय प्यावत बालक धरि चली। पति सेवा तजि करी न भली॥ धरयो रह्यो जेवन जिते तेल*उबटना त्याग्यो दूरी। भागन पाई जीवन मूरि॥ रासरसिक गुण गाइहो॥३॥ अंजतही इक नैन बिसारयो। कटि कंचुकि लहँगाउरधारयो॥ हार लपेटयो चरण न सों*श्रवण न पहिरे उलटे तार॥ तिरनी पर चौकी श्रृंगार॥ चतुर चतुरता हरिलई*जाको मन जहां अटके जाइ॥ तावनिताको कछु न सोहाइ। कठिन प्रीतिको फंदहै*श्यामहि सुचत मुरलीनाद। सुनि धुनि छूटै विषै सवाद॥ रासरासिक गुण गाइहो॥४॥ एक मात पित रोकी आनि। सही न हरि दरशनकी हानि॥ सबहीको अपमानकै*जाको मनमोहन हरि लियो। ताको काहू कछुना कियो॥ ज्यों पतिसों त्रिय रतिकरै जैसे सरिता सिंधुहि भजै। कोटिक गिरि भेदत नहिं लजे॥ तैसी गति तिनकी भई*इक ने घरते निकसी नहीं। हरि करुणा करि आए तहीं॥ रासरासिक गुण गाइहो॥५॥ निरस कबी न कहै रसरीति। रसिकहि लीला रसपर प्रीति॥ यह मत शुकमुख जानिवो*ब्रजबनिता पहुँची पियपास। चितवत चंचल भ्रुकुटिविलास॥ हाँसे बूझी हरि मानदै*कैसे आई मारग मांझ। कुलकी नारि न निकसै सांझ॥ कहा कहैं तुम योगहो*ब्रजकी कुशल कहो बड़भाग। क्यों तुम छाँडे सुवन सोहाग॥ रासरसिक गुणगाइहो॥६॥ अजहूं फिरि अपने घर जाहु। परमेश्वर करि मानो नाहु॥ बनमें निशि बसिए नहीं*श्रीवृंदावन तुम देखा आइ। सुखद कुमो दिनि प्रफुलित जाइ। यमुनाजल सीकर घनो*घरमहँ युवती धर्महि फबै। ताविन सुतपति दुःखित सबै॥ यह विधना रचना रची* भरताकी सेवा सतसार। कपट तजै छूटै संसार॥ रासरसिक गुणगाइहो॥७॥ विरध अभागी जो पति होई। मूरख रोगी तजै न जोई॥ पतित विलक्षक छाँडिए*तजि भरता रहि जारहि लीन। ऐसी नारि नहोइ कुलीन॥ यश विहीन नरकहि परै* बहुत कहा समुझाऊं आज। हमहूं कछु करिबे गृहकाजा॥ हमते को अति जानतहै*श्रीमुख वचन सुनत बिलखाइ। व्याकुल धरणि परी मुरझाइ॥ रासरसिक गुणगाइहो॥८॥ दारुण चिंता बढी न थोर। कूरवचन कहै नंदकिसोर॥ और शरन सूझै नहिं ठौर*रुदन करत नदी बढ़ी गंभीर। हरि