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श्रीसूरदासजीका जीवनचरित्र। (८२)नंदलालकवि सं० १६०१ कवित्त सुंदर हजारामें इनके कवित्तहैं। (८४) रसखानकवि सैयद इबराहीम पिहानीवाले सं० १६३१ एकवि मुसल्मानथे श्रीवृंदा वनमें जाय कृष्णचंद्रकी भक्तिभावमें ऐसे डूबे कि फिरि मुसल्मानी त्याग करि माला कंठी धारण किए हुए वृंदावनकी रजमें मिलिगए इनकी कविता निपट ललित माधुर्य्यतासे भरीहुई है इनकी कथा भक्तमालमें पढ़ने योग्य है। (८५) नाभादास कवि नाम नारायणदास महाराष्ट्र दक्षिणी सं० १५४० इनको स्वामी अग्रदास जी ने गलता नाम इलाके आमेरमें लाय अपना शिष्य बनाय भक्तमाल नाम ग्रंथ लिखने की आज्ञाकरी नाभा जी ने११८छप्पय छंदमें इसग्रंथको रचा तेहि पछि स्वामी प्रियादास वृंदावनीने उस्का तिलक कवित्तोंमें किया तेहि पीछे लालजी कायथ कांधलाके निवासी ने सन् ११५८ हिजरी में उसीका टीका बनाय भक्त उरवसी नाम रक्खा इनदिनों उसी भक्तमालको महारसिक भगवत भक्त तुलसीराम अगरवाल मीरापुर निवासीने उर्दूमें उल्थाकार भक्तमाल प्रदीपन नाम धरा है नाभादासकी विचित्रकथा भक्तमालमें लिखी है। (८) नरवाहनजी कवि भौगाँव निवासी सं० १६०० एकवि स्वामी हितहरिवंश जीके शिष्य थे इनके पद बहुत विचित्रहैं कथा इनकी भक्तमालमें है। (८७) नरसिया कवि अर्थात् नरसीजी जूनागढ़ निवासी सं० १९९०इनके पद राग सागरोद्भवमें हैं। (८८) नारायणभट्ट गोसाई गोकुलस्थ ऊंचगांव बरसानेके समीपके निवासी सं० १६२० इनके पद रागसागरोद्भवमें हैं ये महाराज बड़ेभक्तथे वृंदावन मथुरा गोकुल इत्यादिमें जे तीर्थस्थान लुप्तहोगयेथे उन सबको प्रगट करि रासलीलाकी जड़ इन्होंने प्रथम डालीहै। (८९) तानसेनकवि ग्वालियर निवासी सं० १९८८ ए कवि मकरंद पाँड़े गौड़ ब्राह्मणके पुत्रथे प्रथम श्रीगोसाई स्वामी हरिदासजू गोकुलस्थके शिष्यद्वै काव्यविद्याको यथावत् सीखा तत्पश्चात् शेष महम्मद गौस ग्वालियरवासीके पासजाय संगीतविद्याकेलिये प्रार्थनाकरी शाहसाहेव तंत्रविद्या में अद्वीतीयथे वरन् मुसल्मानोंने इन्हींको इसविद्याका आचार्य सब तवारीखोंमें लिखाहै शाह साहेबने अपनी जीभ तानसेनकी जीभमें लगाय दिया उसीसमयसे तानसेन गानविद्या महा- निपुण होगए इनकी प्रशंसामें आईन अकवरीमें ग्रंथकर्ता फहीमने लिखा है ऐसा गानेवाला पिछले हजारामें कोई नहीं हुवा निदान तानसेन दौलतिखां शेरखां वादशाहके पुत्रपर आशिकलै उनके ऊपर बहुतसीकविता करी तेहि पीछे दौलतिखांके मरनेपरं श्रीबांधवनरेश रामसिंह बघेलाके इहां गए औ वहांसे अकबर बादशाहने अपने इहां बुलाय लिया तानसेन औ सूरदास जीसे बहुत मित्रताथी तानसेन जीने सूरदासकी तारीफमें यह दोहा बनाया। दो-किधौं सूरकोशर लग्यो, किधौं शूरकीपीर! किधौं सूरको पदलग्यो, तनमनधुनत शरीर १॥ तब सूरदासजीने यह दोहा कहा। दोहा। विधना यह जिय जानिकै होश न दीन्हे कान । धरा मेरु सब डोल तों, तानसेन को तानर इनके ग्रंथ रागमाला इत्यादि महाउत्तम काव्यके ग्रंथ हैं। (९०) निपट निरंजन स्वामी सं० १६५०ए महाराज गोस्वामी तुलसीदासके समान सिद्ध होग- ए हैं औ इनके ग्रंथोंकी ठीक ठीक संख्या मालूम नहीं होती पुरानी संग्रहीत पुस्तकोंमें सैकरों कवित्त हम इनके देखतेहैं हमारे पुस्तकालयमें शांत सरसी १ औ निरंजन संग्रह २ दो ग्रंथ इन महाराजके बनाये हुए हैं इनकी कवितामें बहुत बड़ा प्रताप यह है कि मनुष्य कैसाही काम क्रोध इत्यादि पाशोंसे बद्ध होवै इनकी वाक्यके श्रवण कीर्तनसे निःसंदेह मुक्त हो जावे। -