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दशमस्कन्ध-१० (३५६) अंतर भए हैं जाते तुमसों कहति वाते मैंहीं कियो द्वंदन । सूरदास प्रभु विनु भईहीं विकल आली कहां रहे वनमाली सुर नर मुनि जन वंदन ॥ १८ ॥ विलावल ॥ मिलहु श्याम मोहिं चूक परी । तेहि अंतर तनुकी सुधि नाही रसना रट लागी नटरी॥ धरणि परी व्याकुल भई बोलति लोचन धारा अंसुझरी । कबहूँ मगन कबहुँ सुधि आवति शरन शरन कहि विरह जरी ॥ कृष्ण कृष्ण करि टेरि उठति है युगसम बीतत पलक घरी । सूर निर खि ब्रजनारि दशा यह चकित भई जहँ तहां खरी॥ १९॥ देखि दशा सुकुमारिकी युवती सब धाई । तरु तमाल बूझति फिरें कहि कहि मुरझाई ॥ नँदनंदन देखे कहूं मुरली कर धारी । कुंडल मुकुट विराजई तनु कुंडल भारी ॥ लोचन चारु विलास हैं नासा अतिलोनी । अरुन अधर दशना वली छवि वरण कोनी ॥ विव पँवारे लाजहीं दामिनि दुति थोरी । ऐसे हरि हमको कहौ कहुँ देखे हौरी । अंग अंग छवि कहा कहै देखे वनि आवै । सुरश्याम पावै नहीं को काहि बतावै ॥२०॥ बिलावल ॥ अति व्याकुल भई गोपिका ढूंढति गिरिधारी । बूझति है बन वेलि सों देखे बनवारी॥ जाही जूही सेवती करनाकनिआरी। वेलि चमेली मालती बूझति दुमडारी ॥ बूझा मरुआ कुंद सों कहै गोद पसारी । वकुल बहुलि घट कदमपै ठगढी ब्रजनारी ॥ वार २ हाहा करें कहुँ हो गिरिधारी। सूरश्यामको नाम लै लोचन जल ढारी ॥ २१ ॥ कहूं न पावें श्यामको बूझत वन वेली। सवै भई व्याकुल फिरें तन मदन दहेली ॥ मृगनारीसों बूझहीं बूझै सुकुमारी। कमल सरोवर बूझहीं बिरहा तनु भारी ॥ कनक वेलिसी सुंदरी दुमके तर डारी। मानों दामिनि धरणि परी की सुधा पनारी ॥ इत उतते फिरि आवहीं जहँ राधा प्यारी । सूरश्याम अजहूं नहीं कार मिलत कृपारी ॥२२ ॥ विहागरो ॥ करति हैं हरि चरित्र व्रजनारि । देखि अतिही विकल राधा इहै बुद्धि विचारि॥ एक भई गोपालको वपु एकभई बनवारि । एकभई गिरिधरन समरथ एक भई दैत्यारि ॥ एकभई वे धेनु बछरा एकभई नँदलाल । एकभई जमला उधारन इक त्रिभंग रसाल ॥ एक भई छवि राशि मोहन कहत राधा नारि। एक कहति उठि मिलहु भुजभरि सूर प्रभुरी प्यारि ॥२३॥ जैतश्री ॥ सुनत ध्वनि श्रवण उठी अकुलाइ । जो देखे नँदनंदनही वै सखियन भेप बनाइ। कहा कपट करि मोहिं देखावति कहां श्याम सुखदाइ । कृष्ण कृष्ण शरणागत कहि के बहुरि गिरी भहराइ ॥ पुनि दोरी.जहँ तहँ ब्रजवाला बन दुम सोर लगाइ । सूरदास प्रभु अंत यामी विरहिनि लेहु जिवाइ ॥२४ ॥ कान्हरो ॥ कृपासिंधु हरि क्षमा करौ हो । अनजाने मन गर्व बढ़ायो सो अपने जिनि हृदयः धरौ हो ॥ सोरहसहस पीर तन एकै राधा जिव सब देह । ऐसी दशा देखि करुणा मै प्रगट्यो हृदय सनेह ॥ गर्व हत्यो तनु विरह प्रकाश्यो प्यारी व्याकुल जानि । सुनहु सूर अब दरशन दीजै चूक लई इनि मानि ॥२६॥ केदारो ॥ अहो तुम आनि मिलौ नंदलाल । दुर्बल मलिन फिरत हम वन वन तुम विनु मदन गोपाल ॥ द्रुम वेली पूंछति सब उझकति देखति ताल तमाल । खेलत.रास रंग भरि छांडी ले जु गये ककवाल ॥ सूरदास सब गोपी पछिली क्रीडा करति रसाल । गोपीवृंदमध्य जगजीवन प्रगट भए तेहिकाल ॥ ॥२६॥ हरिविनु लागतहै वन सूनो। ढूंढति फिरति सकल व्रजयुवती दहत काम दुखदूनो । तजि सुत पति सुनि श्रवणनिधाई मुरलिनादमृदु कीनों ॥ व्यापत मकर मीन अति आतुर मनहुँ मीन | जल हीनो। चितवति चकित दिशनदिश हेरति मनमोहन हरलीनो । द्वम वेली पूछे सव सुंदर | नवल जात कहुँ चीनों ॥ कदली वोट निचोरत अंचल अधर सुधारस पीनो । सूरश्यामप्रिय प्रेम ।