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(३५४)
सूरसागर।


बन सारस खग काहू नहीं बतायोरी॥ मुरली अधरसुधारस लैतरु रहे यमुनके तीर। कहि तुलसी तुम सब जानतहौ कहँ घनश्याम शरीर॥ कहिधौं मृगी मयाकरि हमसों कहिधौं मधुप मराल। सूरदास प्रभुके तुम संगी हौ कहां परम दयाल॥७॥ कहूं न देख्योरी मधुबनमें माधौ। कहाँधौ मृग गमन कीन्हो कहाँधौ बिलमि रहे नैन मरत दरशनकी साधौ॥ जबते बिछुरे श्याम तबते रह्यो नजाइ सुनौ सखी मेरोइ अपराधौ। सूरदास प्रभु बिनु कैसे जीवहिं माई घटत घटत घटि रह्यो प्राण आधो॥८॥ आसावरी ॥ कहूं न पाऊरी सब ढूंढि वन घन श्यामसुंदर परवारौं तन मन। नैनन चटपटी मेरे तबते लागी रहति कहां प्राणप्यारो निर्धनको धन॥ चंपक जाइ गुलाब बकुल फूले तरु प्रति बूझति कहुँ देखे नँदनंदन। सूरदास प्रभु रास रसिक बिनु रास रसिकिनी विरह विकल कार भईहैं मगन॥९॥ काफी ॥ कोऊ कहुँ देखेरी नँदलाल। साँवरो सलोना ढोटा नैन विसाल॥ मोर मुकुट वनमाल रसाल। पीतांबर मोहै सोहै तन गोपाल॥ निशि बनगई जहां सबै ब्रजबाल। अंतर्ध्यान भए रचि ख्याल॥ द्रुम द्रुम ढूँढत भई बेहाल। सूर श्याम बिनु विरह जंजाल॥१०॥ सारंग ॥ तुम कहुँ देखे श्याम विसासी। नैक मुरलिका बजाइ बाँसकी लै गए प्राणनिकासी॥ कबहुँक आगे कबहुँक पाछे पग पग भरत उसासी। सूरश्यामके दरशन कारण निकसी चंद्रकलासी॥११॥ वागेसरी ॥ कान्हरो ॥ मोहन मोहन कहि कहि टेरै कान्ह हवौ यहि वन मेरे। कहियत हौ तुम अंतर्यामी पूरण कामी सब केरे॥ ढूंढतिहे द्रुम बेली वाला भई बेहाल करति अबसेरें। सूरदास प्रभु रास विहारी श्रीवनवारी वृथा करत काहे झेरें॥१२॥ अडानो ॥ कहो कान्ह ए बातैं हैं तिहारी बनवारी सुखही में भए न्यारे। इक सँग एक समीप रहतहैं तिन तजि कहां सिधारे॥ अब करि कृपा मिलौ करुणामय कहियतहो सुख। सूरश्याम अपराध क्षमहु अब समुझी चूक हमारे॥१३॥ परासी ॥ केहि मारग मैं जाउँ सखीरी मारग विसरयो। ना जानौ कित ह्वै गए मोहिं जातन जानि परयो। अपनो पिय ढूंढति फिरौंरी मोहिं मिलवेको चाव। कांटो लाग्यो प्रेमको पिय यह पायो दाव॥ बन डोंगर ढूँढति फिरी घरमारग तजि गाउँ। बूझों द्रुम प्रति रूख ए कोउ कहै न पियको नाउँ॥ चकित भई चितवत फिरीरी व्याकुल अतिहि अनाथ। अबकै जो कैसेहुँ मिलौ तौ पलक न तजिहौं साथ॥ हृदय माहँ पिय घर करौंरी नैनन बैठक देउँ। सूरदास प्रभु सँग मिलौ बहुरि रास रसलेउँ॥१४॥ श्रीराग ॥ कान्ह प्यारो कहुँ पायोरी। श्याम श्याम कहि कहति फिरति यह ध्वनि वृंदावन छायोरी॥ गर्व जानि पिय अंतर ह्वै रहे सो मैं वृथा बढ़ायोरी। अब बिनु देखे कल न परत छिन श्यामसुंदर गुण रायोरी॥ मृग मृगिनी द्रुम वन सारस खग काहू नहीं बतायोरी। सूरदास प्रभु मिलहु कृपाकरि युवतिन टेरि सुनायोरी॥१५॥ विहागरो ॥ हो कान्ह मैं तुम चाहौं तुम काहे ना आवो। तुम धन तुम तन तुम मन भावो॥ कियो चाहों अरस परस करौ नहिं माना। सुन्यो चाहौं श्रवण मधुर मुरलीकी ताना॥ कुंज कुंज जपति फिरी तेरे गुणनकी माला। सूरदास प्रभु वेगि मिलौ मोहिं मोहन नँदलाला॥१६॥ काफी ॥ सखी मोहिं मोहन लाल मिलावै। ज्यों चकोर चंद्राको इकटक भृंगी ध्यान लगावै॥ बिनु देखे मोहिं कल न परैरी यह कहि सवन सुनावै। बिन कारन मैं मान कियोरी अपनेहि मन दुखपावै॥ हाहा करि करि पाँइन परि परि हरि हरि टेर लगावै। सुरश्याम बिनु कोटि करौ जो और नहीं जिय आवै॥ ॥१७॥ आसावरी ॥ हाँतौ ढूंढि फिरि आईरी माईरी सिगरो वृंदावन कहुँ नहीं पाएरी नँदनंदन।अनतहि रहे जाइ कौनधौं राख छपाई मोको न कछु सुहाइ कहां जाइ रहे कामकंदन॥ मोहींते परीरी चूक