(३५०) सूरसागर। - D मधुर सुरगान ॥ नृत्य करत उघटत नानाविधि सुनि मुनि विसरयो ध्यान । मुरली सुनत भए सब व्याकुल नभ धरनी पाताल।। सूरश्यामका को न किए वश रचि रसरास रसाल।।६९॥ केदारो॥ बनावत रासमंडल प्यारोमुकुटकी लटक झलक कुंडलकी निरतत नंददुलारोउर वनमाल सोहै सुंदर वर गोपिनके सँग गावै । लेत उपर नागर नागरि सँग विच विच तान सुनावै ॥ वंसी. वट तट रास रच्यो है सब गोपिन सुखकारो। सूरदास प्रभु तिहारे मिलनको भक्तन प्राण अधारो ॥७०॥ विहागरो ॥ दुलह दुलहिनि श्यामा श्याम । कोककला वितपन्न परस्पर देखत लजित काम ॥ जा फलको ब्रजनारि कियो व्रत सो फल पूरण पायो । मनकामना भयो परिपूरण सहित मानि लियो ॥ राग रागिनी प्रगट देखायो गाये जो जेहि रूप सप्त सुरनके भेद बतावति नागरि रूप अनूप ॥ अतिहि सुघर पियको मन मोह्यो अपवश करति रिझावति । सूरश्याम मोहन मूरतिको वार वार उरलावति ॥ ७१ ॥ रामकलीं ॥ श्यामा श्याम रिझावति भारी। मन मन कहति और नहिं मोसी पियको कोऊ प्यारी ॥ ध्रुवा छंद धुरपद यश हरिको हरिही गाय सुनावति । आपुन रीझि कंतको रिझवति यह जिय गर्दः वढावति ॥ नृत्यति उपटति गति संगीत पद सुनत कोकिला लाजति । सूरश्याम नागर अरु नागरि ललना सुलप मंडली राजात।। ७२ ॥रामकली रिझवति पियहि वारंवार । निरखि नैन लजात : हरिके नहीं सोभापार ॥ चलि सुलप गज हंस मोहति कोक कला प्रवीन । हँसि परस्पर तान गावति करति पियहि अधीन । सुनत वनमृग होतं व्याकुल रहत चकृत आइ । सूरप्रभु प्रश किए नागरि महाजाननि राइ ॥७३॥ प्यारी श्याम लई उर लाई। उरज उरसों परस को सुख वरणि कापै जाई॥कनक छवि तन मलय लेपन निरखि भामिन अंग । नासिका शुभ वास लैलै पुलक झ्याम अनंग ॥ देत चुंबन लेत सुखको मानि पूरण भाग । सूर प्रभु वश किए नागरि वदति धन्य सुहाग ॥७४॥ विहागरो रीझे परस्पर वरनारि । कंठ भुज भुज धरे दोऊ सकत नहिं निर वारि ॥ गौर श्याम कपोल सुललित अधर अमृत सार । परस्पर दोउ पियरु प्यारी रीझि लेत उगार ॥ प्राण इक द्वै देह कीन्हें भक्त प्रीति प्रकास । सूर स्वामी स्वामिनी मिलि करत रंग विलास ॥ ७९ ॥ गावत श्याम श्यामा रंग । सुघर गति नागरि अलापति सुर धरति पिय संग ॥ तान गावति कोकिला मनो नाद अलि मिलि देत । मोर संग चकोर डोलत आप अपने हेत॥ भामिनी अंग जोन्ह मान जलद श्यामलगात । परस्पर दोउ करत क्रीडा मनहि मनहि सिहात । कुचनि विच कच परमसोभा निरखि हँसत गोपाल ॥ सूर कंचन गिरि विचनि मनों रह्यों है . अंधकाल ७६॥ मोहन मोहनी रस भरे । भौंह मोरनि नैन फेरनि तहाँ ते नहिं टरे॥ अंग निरखि अनंग लजित सकै नहिं ठहराइ। एककी कहाचलै शत शत कोटि रहत लजाइइते पर हस्तकानि गति छवि नृत्य भेद अपार । उडत अंचल प्रगटि कुच दोउ कनकपट रससार । दरकि कंचुकि. तरकि माला रही धरणी जाइ । सूर प्रभु कार निरखि करुणा तुरत लई उचाइ ॥ ७७॥ जैतश्री॥ प्रेमसहित माला कर लीन्ही । प्यारी हृदय रहत यह जानी भुवपर नहीं पतीन्ही ॥ पीतवसन लै श्रमजल पोंछत पुनिलै कंठ लगाइ । चरणन कर परसतहै अपने कहत अतिहि श्रम पाइ॥ कुच .... श्रम देखि पवन सुखहीके फूंकि झुरावत अंग । सूरदास प्रभु भौंह निहारत चलत त्रियाके रंग ।। ॥ ७८॥ भैरव ॥ हाहाहो पिय नृत्य करो। जैसे कार मैं तुमहि रिझाई त्यों मेरो मन तुमहु हरो॥ तुम जैसे श्रम वायु करतहो तैसे मैंहुँ डुलावोंगी। मैं श्रम देखि तुम्हारे अँगको भुजभरि कंठ लगा।
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