मानो क्रीडत विविध विलास॥ ब्रजयुवती सत यूथ मंडली मिलि कर परस करे। भुज मृणाल भूषण तोरण युत कंचन संभ खरे॥ मृदुपद न्यास मंद मलयानिल विगलत शीश निचोल। नील पीत सित अरुन ध्वजा चल सीर समीर झकोल॥ विपुल पुलक कंचुकि बँद छूटे हृदय अनँद भए। कुच युग चक्रवाक अवनी तजि अंतर रैनिगए। दशन कुंद दाडिम दुति दामिनि प्रगटत ज्यों दुरिजात। अधर बिंब मधु अमी जलदकन प्रीतम वदन समात॥ गिरत कुसुम कुँवरी केशनते टूटतहै उरहार। शरद जलद मानो मंद किरन कन कहूं कहूं जलधार॥ प्रफुलित बदन सरोज सुंदरी अति रस नैन रँगे। पुहुकर पुंडरीक पूरन मानों खंजन केलि खगे।
पृथु नितंब करभीर कमल पद नखमणि चंद्र अनूप। मानहु लब्ध भयो वारिज दल इंदु किए दशरूप॥ श्रुति कुंडल पर गिरत न जानति अति आनंद भरी। चरण परसते चलत चहूं दिशि मानहुँ मीन करी॥ चरणरुनित नूपुरकटि किंकिनि करतलतालरसाल। तरनतिनय सोभा समीप सुख मुख रति मधुर मराल॥ बाजत ताल मृदंग उपंग बांसुरी उपजति तान तरंग। निकट विटप मानो द्विज कुल कूजत पय बल बढै अनंग॥ सकलविनोद सहित सुरललना मोहे सुर नर नाग। विथकित उडपति बिंद बिराजत श्रीगोपाल अनुराग॥ याचत दास आश चरणनकी अपनी शरन बसाव॥ मन अभिलाष श्रवण यश पूरित सूरहि सुधा पिआव॥६४॥ सूही ॥ रासरसिक गोपाललाल ब्रजबाल संग विहरत वृंदावन। सप्तसुरन मुरली बाजत गाजत भ्राजत राजत अधरनि ध्वनि सुनि मोहे सुर नर गंधर्व गन॥ तरुण कान्ह तरु तमालके तट तरुणि गोपिका यूथ निकट पट पीतांवर नीलांवर तन तन॥ नृत्य करत उघटत संगीत पद ताथेई थेई ता कहत सूर प्रभु निरखि परस्पर रीझत मन मन॥६५॥ विहागरो ॥ आजु निशि सोभित शरद सुहाई। शीतल मंद सुगंध पवन बहै रोम रोम सुखदाई॥ यमुना पुलिन पुनीत परमरुचि रचि मंडली बनाई। राधा वामअंग पर कर धरि मध्यहि कुँवर कन्हाई॥ कुंडल संग ताटंक एक भए युगल कपोलनि झाई। एक उरग मानो गिरि ऊपर द्वै शशि उदय कराई॥ चारि चकोर परे मनो फंदा चलतहैं चंचलताई। उडुपतिगति जति रह्यो निरखि लजि सूरदास बलि जाई॥६६॥ ॥ केदारो ॥ आजु हरि ऐसे रास रच्यो। श्रवण सुन्यो न कहूं अवलोक्यो यह सुख अबलौं कहां सच्यो॥ प्रथमहि सबै समाज साज सुर मोहे कोउ न बच्यो। एकहि बार थकित थिर चर कियो
को जानै को कबहि नच्यो॥ गत गुण मँद अभिमान अधिक रुचि लै लोचन मन तहँइ खच्यो। शिव नारद शारदा कहत यों हम इतने दिन वादि पच्यो। निरखि नैन रसरति रजनि रुचि काम कटक फिरि कलह मच्यो। सूर धनुष धीरज न धरयो तब उलटि अनंग अनंग तच्यो॥ ॥६७॥ आजु हरि अद्भुत रास उपायो। एकहि सुर सब मोहित कीन्हें मुरलीनाद सुनायो॥ अचल चले चल थकित भए सब मुनि जन ध्यान भुलायो। चंचल पवन थक्यो नहिं डोलत यमुना उलटि बहायो॥ थकित भयो चंद्रमा सहित मृग सुधा समुद्र बढायो। सूरश्याम गोपिन सुखदायक लायक दरश दिखायो॥ सोरठ ॥ मोहन यह सुख कहा धरयो। जो सुख रास रैनि उपजायो त्रिभुवन मनहि हरयो॥ मुरली शब्द सुनत ऐसो को जो व्रतते नटरयो। बचे न कोउ मोहित सब कीन्हे प्रेम उद्योत करयो॥ उलटि काम तनु काम प्रकाश्यो अद्भुत रूप धरयो। सूरदास
शिव नारद शारद कहत न कह्यो परयो॥६८॥ विहागरो ॥ आज निशि रास रंग हरि कीन्हों। ब्रज बनिता बिच श्याममंडली मिाले सबको सुख दीन्हों॥ सुरललना सुरसहित विमोहे रच्यो
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दशमस्कन्ध १०