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दशमस्कन्ध १० (३४९) मानो क्रीडत विविध विलास ॥ ब्रजयुवती सत यूथ मंडली मिलि कर परस करे। भुज मृणाल भूपण तोरण युत कंचन संभ खरे ॥ मृदुपद न्यास मंद मलयानिल विगलत शीश निचोल। नील पीत सित अरुन ध्वजा चल सीर समीर झकोल ॥ विपुल पुलक कंचुकि बँद छूटे हृदय अनँद भए । कुच युग चक्रवाक अवनी तजि अंतर रैनिगए । दशन कुंद दाडिम दुति दामिनि प्रगटत ज्यों दुरिजात । अधर विव मधु अमी जलदकन प्रीतम वदन समात ॥ गिरत कुसुम कुँवरी केशनते टूटतहै उरहार । शरद जलद मानो मंद किरन कन कहूं कहूं जलधार ॥ प्रफुलित वदन सरोज सुंदरी अति रस नैन रंगे । पुहुकर पुंडरीक पूरन मानों खंजन केलि खगे । पृथु नितंब करभीर कमल पद नखमणि चंद्र अनूप । मानहु लब्ध भयो वारिज दल इंदु किए दशरूप ॥ श्रुति कुंडल पर गिरत न जानति अति आनंद भरी । चरण परसते चलत चहूं दिशि मानहुँ मीन करी ॥ चरणरुनित नूपुरकटि किंकिनि करतलतालरसाल । तरनतिनय सोभा समीप सुख मुख रति मधुर मराल ॥ वाजत ताल मृदंग उपंग वांसुरी उपजति तान तरंग। निकट विटप मानो द्विज कुल कूजत पय वल बढे अनंग ।। सकलविनोद सहित सुरललना मोहे सुर नर नाग । विथकित उडपति विद विराजत श्रीगोपाल अनुराग ॥ याचत दास आश चरणनकी अपनी शरन वसाव ॥ मन अभिलाष श्रवण यश पूरित सूरहि सुधा पिआव ॥६॥ सूही।रासरसिक गोपाललाल ब्रजवाल संग विहरत वृंदावनासप्तसुरन मुरली बाजत गाजत भाजत राजत अधरनि ध्वनि सुनि मोहे सुर नर गंधर्व गन ॥ तरुण कान्ह तरु तमालके तट तरुणि गोपिका यूथ निकट पट पीतांवर नीलांवर तन तन ॥ नृत्य करत उघटत संगीत पद ताई थेई ता कहत सूर प्रभु निरखि परस्पर रीझत मन मन ॥६६॥विहागरो|आजु निशि सोभित शरद सुहाईशीतल मंद सुगंध पवन वहै रोम रोम सुखदाई।यमुना पुलिन पुनीत परमरुचि रचि मंडली बनाई । राधा वामअंग पर कर धरि मध्यहि कुँवर कन्हाई ॥ कुंडल संग ताटंक एक भए युगल कपोलनि झाई । एक उरग मानो गिरि ऊपर द्वै शशि उदय कराई।चारि चकोर परे मनो फंदा चलतहैं चंचलताई। उडुपतिगति जति रह्यो निरखि लजि सूरदास बलि जाई।। ६६ ।। ॥ केदारो ॥ आजु हरि ऐसे रास रच्यो । श्रवण सुन्यो न कहूं अवलोक्यो यह सुख अवलौं कहां सच्यो|प्रथमहि सबै समाज साज सुर मोहे कोउ न बच्यो । एकहि वार थकित थिर चर कियो को जाने को कवहि नच्यो । गत गुण मँद अभिमान अधिक रुचि लै लोचन मन तहँइ खच्यो। शिव नारद शारदा कहत यों हम इतने दिन वादि पच्यो । निरखि नैन रसरति रजनि रुचि काम कटक फिरि कलह मच्यो । सूर धनुष धीरज न धरयो तव उलटि अनंग अनंग तच्यो । ॥७॥ आज हरि अद्भुत रास उपायो । एकहि सुर सब मोहित कीन्हें मुरलीनाद सुनायो । !! अचल चले चल थकित भए सब मुनि जन ध्यान भुलायो । चंचल पवन थक्यो नहिं डोलत ॥ यमुना उलटि बहायो॥ थकित भयो चंद्रमा सहित मृग सुधा समुद्र बढायो।सूरश्याम गोपिन सुख दायक लायक दरश दिखायो । सोरठ ॥ मोहन यह सुख कहा धरयो । जो सुख रास रैनि उपजा यो त्रिभुवन मनहि हरयो । मुरली शब्द सुनत ऐसो को जो व्रतते नटरयो। बचे न कोउ मोहित सब कीन्हे प्रेम उद्योत करयो । उलटि काम तनु काम प्रकाश्यो अद्भुत रूप धरयो । सूरदास शिव नारद शारद कहत न करो परयो ॥ ६८॥ विहागरो ॥ आज निशि रास रंग हरि कीन्हों। ब्रज बनिता विच श्याममंडली मिाले सवको सुख दीन्हों ।। सुरललना सुरसहित विमोहे रच्यो।