ब्रजनारि॥ काम आतुर भजीं बाला सबनि पुरई आश। एक इक ब्रजनारि इक इक आपकरयों प्रकाश॥ कबहुँ नृत्यत कबहुँ गावत कबहुँ कोकविलास। सूरके प्रभु आश नायक करत सुख दुख नाश॥४९॥ कल्याण ॥ हरषि मुरली श्याम नाद कीन्हों। करषि मन तिहुँ भुवन सुनि थकि रह्यो पवन शशिहि भूल्यो गवन ज्ञान लीन्हो॥ तारकागण लजे बुद्धि मन मन सजे तबहिं तनु सुधितजे शब्द लाग्यो। नाग नर मुनि थके नभ धरणितनतके शारदा स्वामि शिव ध्यान जाग्यो॥ ध्यान नारद टरयो शेष आसन चल्यो गई वैकुंठ ध्वनि मगन स्वामी। कहत श्रीप्रियासों राधिका रवन ए सूरप्रभु श्यामके दरशकामी॥५०॥ विहागरो ॥ मुरली ध्वनि वैकुंठ गई। नारायण कमला सुनि दंपति अति रुचि हृदयभई॥ सुनहुं प्रिया यह वाणी अद्भुत वृंदावन हरि देख्यो। धन्य धन्य श्रीपति मुख कहि कहि जीवन ब्रजको लेख्यो। रास विलास करत नँदनंदन सो हमते अतिदूरि। धनि वन धाम धन्य ब्रज धरनी उडि लागे ज्यों धूरि॥ यह सुख तिहूं भुवन में नाहीं जो हरि सँग पल एक। सूर निरखि नारायण इकटक भूले नैन निमेक॥५१॥ कल्याण ॥ जब हरि मुरलीनाद प्रकाश्यो। जंगम जड थावर चर कीन्हे पाहन जलज विकास्यो॥ स्वर्ग पताल दशौ दिशि पूरण ध्वनि आच्छादित कीन्हों। निशिवर कल्प समान बढ़ाई गोपिनको सुख दीन्हों॥ मैमत्तभए जीव जल थलके तनुकी सुधि न सँभार। सूरश्याम मुखवैन मधुर सुनि उलटे सब व्यवहार॥५२॥ पूरवी ॥ मुरली गति विपरीति कराई। तिहूंभुवन भरि नाद समानो राधा रवन बजाई॥ वछरा थन नाहीं मुख परसत चरत नहीं तृण धेनु। यमुना उलटी धार चलीवहि पवन थकित सुनि वेनु॥ विह्वल भए नहीं सुधि काहू सुर गंधर्व नर नारि। सूरदास सब चकित जहां तहां ब्रजयुवतिन सुखकारि॥५३॥ केदारो ॥ मुरली सुनत अचल चले। थके
चर जल झरत पाहन बिफल वृक्षन फले॥ पय श्रवत गोधननि थनते प्रेम पुलकित गात। झुरे द्रुम अंकुरित पल्लव विटप चंचलपात॥ सुनत खग मृग मौन साध्यो चित्रकी अनुहारि। धरणि उमँगिन माति धरमें यती योग बिसारि॥ ग्वाल गृह गृह सहज सोवत उहै सहज सुभाइ। सूर प्रभु रसरासके हित सुखद रैनि बढ़ाइ॥५४॥ केदारो ॥ रास रस मुरली होते जान्यों। श्याम अधर पर बैठिनाद कियो मारग चंद्र हिरान्यों॥ धरणि जीव जल थलके मोहे नभमंडल सुर थाके। तृण द्रुम सलिल पवन गति भूले श्रवण शब्द परयो जाके॥ बच्यो नहीं पाताल रसातल कितिक उदैलौंभान। नारद शारद शिव यह भाषत कछु तनु रह्यो न सयान॥ यह अपार रस रास उपायो सुन्यो न देख्यो नैन। नारायण ध्वनि सुनि ललचाने श्याम अधर सुनि वैन॥ कहत रमासों
सुनि सुनि प्यारी विरहतहै बन श्याम। सूरकहाँ हमको वैसो सुख जो विलसति ब्रजवाम॥५५॥ जीती जीती है रनवंसी। मधुकर सूत वदत बंदी पिक मागध मदन प्रशंसी॥ मथ्यो मान बलदर्प महीपति युवति यूथ गहि आने। ध्वनिको खंड ब्रह्मंड भेद करि सुर सन्मुख शर ताने॥ ब्रह्मांदिक शिव सनक सनंदन बोलत जै जै बाने। राधापति सर्वस अपनो दै पुनि ता हाथ बिकाने॥ खग मृग मीन सुमार किए सब जड जंगम जित भेष। छाजत छत मद मोह कवच कटि तजत न नैन निमेष॥ अपनी अपनी ठकुराइनिकी काढतिहै भुवरेख। बैठी पीठ पानि गर्जति है देति सबनि अंवसेष॥ रविको रथ ले दियो सोमको षटदश कला समेत। रच्यो यज्ञ रसरास राज सवंद्धाविपिन निकेत॥ दान मान परधान प्रेमरस वध्यो माधुरी हेत। अधिकारी गोपाल तह तथा सबनि सुख देत॥५६॥ अथ श्रीकृष्णविवाह वर्णन ॥ सारंगा ॥ जाको व्यास वर्णत रास। है गंधर्व विमुदित य
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सूरसागर।