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सूरसागर।

(३४०).

कही हमारी मानो । बनमें आइ रैनि सुख देख्यो इहै लयो मुख जानो ॥ अब ऐसी कीजो जिनि कवहूं जानति हो मन तुमहूं। यह ध्वनि सुने कहूं जो कोऊ तुमहिं लाज अरु हमहं | हमती आज बहुत सरमाने मुरली टोरे वजायो । जैसो कियो लह्यो फल तैसो हमही दोपन आयो। अब तुम भवन जाहु पति पूजहु परमेश्वरकी नाहीं । सुरश्याम युवतिनसों यह कहि कहि सब अपराध अमाहीं॥७००॥सूही विलावल यह युवतिनको धर्म नहोई । धृग सो नारि पुरुप जो त्याग धग सो पति जो त्यागै जोई । पतिको धर्म रहै प्रतिपाले युवती सेवाहीको धर्म । युवती सेवा तऊ न त्याग । जो पति कोटि करै अप कर्म ॥ वनमें रैनि वास नहि कीजै देख्यो वन वृंदावन आईविविध सुमन शीतल यमुना जल त्रिविध समीर परसि सुखदाई ॥ वरही में तुम धर्म सदाही सुत पति दुखित होत तुम जाहु । सूरश्याम यह कहि परवोधत सेवा करहु जाइ घरनाहु ॥ १ ॥ विहागरो ॥ यह विधि वेद मारग सुनो । कपट तजि पति करौ पूजा कहा तुम जिय गुनौ ॥ कंत मानहु भव तरीगी। और नहिंन उपाइ। ताहि तजि क्यों विपिन आई कहा पायो आइ॥ विरध अरु विन भाग हूको पति तजो पति होइ । जऊ मूरख होइ रोगी तजै नाहीं जोइ ॥ इहै मैं पुनि कहत तुमसों. जगत में यह सार। सूर पति सेवा विना क्यों तरोगी संसारा॥२॥विहागरो॥कहा भयो जो हमपै आई कुलको रीति गमाई । हमहूँको विधिको डरभारी अजहुँ जाहु चंडाई । तजि भरतार और जो भनिए सो. कुलीन नहिं होई । मरे नरक जीवत या जगमें भलो कहै नहिं कोई।हम जो कहत सबै तुम जानतः ।। तुमहूँ चतुर सुजान । सुनहु सूर घर जाहु हमाँ घर जैहैं होत विहान ॥३॥ विलावल ॥ निठुर वचन सुनि श्यामके युवती विकलानी। चकृत भई सब सुनिरहीं नहिं आवै वानी ॥ मनो तुषार कमल... न परयो ऐसे कुभिलानी। मनो महानिधि पाइकै खोये पछितानी ॥ ऐसी ढगई तनुदशा पियक. सुनि वानी। सूर विरह व्याकुल भई बूडी विनपानी ॥ ४ ॥ मारू ॥ श्याम उर प्रीति मुख कपट वानी। युवति व्याकुल भई धराणि सव गिरि गई आश गई टूटि नहिं भेद जानी ॥ हँसत नद लाल मन मन करत ख्यालए भई वेहाल ब्रजवाल भारी। रुदन जल नदी सम वहिचल्यो उरज विच मनों गिरि फोरि सरिता परानी ॥ अंग थकि पथिक नहिं चलत कोऊ पंथ. नावरसभाव हार नहीं आने । सूर प्रयु निठुर करि कहा है रहेही उनहि विन औरको खेइजानै ॥ ६ ॥ तश्री ॥ निठुर वचन जिनि बोलह श्याम । आश निराश करौ जिनि हमरी व्याकुल वचन कहति । हैं वाम ॥ अंतर कपट दूरि करि डारी. हमतनु कृपा निहारो । कृपासिंधु तुमको | सव गावत अपनो नाम सँभारो ॥ हमको शरण और नहिं सूझै कापै हम अब जाहि। सूरदास प्रभु निज दासनिको चूक कहा पछिताहि ॥६॥ गौरी ॥ तुम पावत हम घोपन जाहि।कहा जाइ लेहैं ब्रजमें हम यह दरशन त्रिभुवनमें नाहिं ॥ तुमह्ते जनहितू कोउ नहिं कोटि कही नहि माने। काके पिता मात हैं काके काहू हम नहिं जानै ॥ काके पति सुत मोह कौनको घर है कहाँ. पठावताकैसो धर्म पापहै कैसो आश निराश करावत ॥ हम जानै केवल तुमहीको और वृथा संसार। सूरश्याम निठुराई तजिए तजिय वचन विनसार ॥ ७ ॥ जैतश्री ॥ तुमही अंतर्यामि कन्हाई।। निठुर भए कत रहत इतेपर तुम नहिं जानत.पीर पराई। पुनि पुनि कहत जाहु जसुंदर दूरि करौ पिय यह चतुराई । आपुहि कही करौ पति सेवा ता सेवाको हैं हम आई। जो तुम: कहाँ तुमहिं सब छाजै कहा कहैं हम प्रभुहि सुनाई । सुनहु सूर इहँई तनु त्यागैं हम घोप गयो नहि । जाई ॥ ८॥ विहागरो ॥ कैसे हमको व्रजहि पठावत । मनतौ. रह्यो चरण लपटानो नो यतनी यह।