कही हमारी मानो। बनमें आइ रैनि सुख देख्यो इहै लह्यो मुख जानो॥ अब ऐसी कीजो जिनि कबहूं जानति हौ मन तुमहूं। यह ध्वनि सुनै कहूं जो कोऊ तुमहिं लाज अरु हमहूं॥ हमतौ आज बहुत सरमाने मुरली टोरे बजायो। जैसो कियो लह्यो फल तैसो हमही दोपन आयो॥ अब तुम भवन जाहु पति पूजहु परमेश्वरकी नाहीं। सुरश्याम युवतिनसों यह कहि कहि सब अपराध क्षमाहीं॥७०० ॥ सूही बिलावल ॥ यह युवतिनको धर्म नहोई। धृग सो नारि पुरुप जो त्यागै धग सो पति जो त्यागै जोई॥ पतिको धर्म रहै प्रतिपाले युवती सेवाहीको धर्म। युवती सेवा तऊ न त्यागै जो पति कोटि करै अप कर्म॥ बनमें रैनि वास नहि कीजै देख्यो बन वृंदावन आई। विविध सुमन शीतल यमुना जल त्रिविध समीर परसि सुखदाई॥ घरही में तुम धर्म सदाही सुत पति दुखित
होत तुम जाहु। सूरश्याम यह कहि परबोधत सेवा करहु जाइ घरनाहु॥१॥ विहागरो ॥ यह विधि वेद मारग सुनो। कपट तजि पति करौ पूजा कहा तुम जिय गुनौ॥ कंत मानहु भव तरौगी और नहिंन उपाइ। ताहि तजि क्यों विपिन आई कहा पायो आइ॥ विरध अरु विन भाग हूको
पति तजो पति होइ। जऊ मूरख होइ रोगी तजै नाहीं जोइ॥ इहै मैं पुनि कहत तुमसों जगत में यह सार। सूर पति सेवा बिना क्यों तरोगी संसारा॥२
विहागरो ॥ कहा भयो जो हमपै आई कुलको रीति गमाई। हमहूँको विधिको डरभारी अजहुँ जाहु चंडाई॥ तजि भरतार और जो भजिए सो कुलीन नहिं होई। मरे नरक जीवत या जगमें भलो कहै नहिं कोई॥हम जो कहत सबै तुम जानत तुमहूँ चतुर सुजान। सुनहु सूर घर जाहु हमौ घर जैहैं होत विहान॥३॥ बिलावल ॥ निठुर वचन
सुनि श्यामके युवती विकलानी। चकृत भई सब सुनिरहीं नहिं आवै वानी॥ मनों तुषार कमलन परयो ऐसे कुँभिलानी। मनो महानिधि पाइकै खोये पछितानी॥ ऐसी ह्वैगई तनुदशा पियक सुनि वानी। सूर विरह व्याकुल भई बूडी बिनपानी॥ ४॥ मारू ॥ श्याम उर प्रीति मुख कपट वानी। युवति व्याकुल भई धराणि सब गिरि गई आश गई टूटि नहिं भेद जानी॥ हँसत नँद
लाल मन मन करत ख्यालए भई बेहाल ब्रजवाल भारी। रुदन जल नदी सम बहिचल्यो उरज बिच मनों गिरि फोरि सरिता परानी॥ अंग थकि पथिक नहिं चलत कोऊ पंथ नावरसभाव हरि नहीं आनै। सूर प्रयु निठुर करि कहा ह्वै रहेहौ उनहिं बिन औरको खेइजानै॥६॥ जैतश्री ॥ निठुर वचन जिनि बोलह श्याम। आश निराश करौ जिनि हमरी व्याकुल वचन कहति।
हैं बाम॥ अंतर कपट दूरि करि डारौ हमतनु कृपा निहारो। कृपासिंधु तुमको सब गावत अपनो नाम सँभारो॥ हमको शरण और नहिं सूझै कापै हम अब जाहिं। सूरदास प्रभु निज दासनिको चूक कहा पछिताहिं॥६॥ गौरी ॥ तुम पावत हम घोषन जाहिं। कहा जाइ लेहैं ब्रजमें हम यह दरशन त्रिभुवनमें नाहिं॥ तुमहूँते ब्रजहितू कोउ नहिं कोटि कहौ नहिं मानै। काके पिता मात हैं काके काहू हम नहिं जानै॥ काके पति सुत मोह कौनको घर है कहाँ पठावत। कैसो धर्म पापहै कैसो आश निराश करावत॥ हम जानै केवल तुमहीको और वृथा संसार। सूरश्याम निठुराई तजिए तजिय वचन विनसार॥७॥
जैतश्री ॥ तुमहौ अंतर्यामि कन्हाई। निठुर भए कत रहत इतेपर तुम नहिं जानत पीर पराई॥ पुनि पुनि कहत जाहु ब्रजसुंदरि दूरि
करौ पिय यह चतुराई। आपुहि कही करौ पति सेवा ता सेवाको हैं हम आई॥ जो तुम कहाँ तुमहिं सब छाजै कहा कहैं हम प्रभुहि सुनाई। सुनहु सूर इहँई तनु त्यागैं हम घोष गयो नहिं जाई॥८॥ विहागरो ॥ कैसे हमको ब्रजहि पठावत। मनतौ रह्यो चरण लपटानो नो यतनी यह
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४३३
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३४०)
सूरसागर।