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(३३६)
सूरसागर।


काको कहियत है लोभ सदा जियमें जिनके॥ ऐसी परनि परीरी जाके लाज कहा ह्वै है तिनके। सुंदरश्याम रूपमें भूले कहा वश्य इन नैननि के॥ ऐसे लोगनको सब मानत जिनकी घर घर हैं भनकै। लुब्धे जाइ सूरके प्रभुको सुनत रही श्रवणनि झनके॥ अथ अँखियाँ समयके पद ॥ धनाश्री ॥ अँखिअनके इहई टेव परी। कहा करौं बारिज मुख ऊपर लागति ज्यों भ्रमरी॥ चितवति रहति चकोर चंद्र ज्यों बिसरति नहिंन घरी। यद्यपि हटकि हटकि राखतिहौं तद्यपि होति खरी॥ गड़ि जुरही वा रूप जलधि में प्रेम पियूष भरी। सूर तहां नग अंग परसरस लूटति निधि सिगरी॥ धनाश्री ॥ आँखियां निरखि श्याम मुख भूली। चकित भई मृदु हँसनि चमक पर इंदु कुमुद ज्यों फूली॥ कुल लज्जा कुल धर्म नाम कुल मानत नाहिंन एको। ऐसे ह्वै ये भजी श्यामको बरजत सुनति न नेको॥ लुब्धीं हरिके अंग माधुरी तनुकी दशा बिसारी। सूरश्याम मोहनी लगाई कछु पढिकै शिरडारी॥ जैतश्री ॥ अखियां हरिके हाथ बिकानी। मृदु मुसुकानि मोल इन लीन्हीं यह सुनि सुनि पछितानी॥ कैसे रहत रहीं मेरे वश अब कछु और भांति। अब वै लाज मरति मोहिं देखत बैठी मिलि हरि पांति॥ स्वपनेकीसी मिलनि करत हैं कब आवति कब जाति। सूर मिलीं ढरि नँदनंदन को अनत नहीं पतियाति॥ विहागरो ॥ अँखियनि ऐसी धरनि धरी। नंदनँदन देखे सचुपावै मोसों रहति डरी॥ कबहूं रहति निरखि मुख सोभा कबहुँ देह सुधि नाहीं कबहूं कहति कौन हरि को मैं यो तन मय ह्वै जाहीं॥ आँखियाँ ऐसेहि भजीं श्यामको नहीं रह्यो कछु भेद। सूरश्यामके परम भावती पलक न होत विछेद॥ रामकली ॥ अँखिअन श्याम अपनी करी। जैसेही उन मुँह लगाई तैसेही ए ढरी॥ इनकिए हरि हाथ अपने दूरि हमते परी। रहति वासररैनि इकटक छाँह घामैं खरी॥ लोकलज्जा निकसि निदरी नहीं काहुहि डरी। ए महा अति चतुर नागरि चतुर नागर हरी॥ रहति डोलति संग लागी डटति ज्यों नाह डरी। सूर जब हम हटकि हटकति बहुत हमपरलरी॥ विहागरो ॥ अँखिअनि तबते वैर धरयो। जब हम हटकति हरि दरशन को सो रिसनहिं बिसरयो॥ तबहींते उन हमहिं भुलाई गई उतहिको धाइ। अबतौ तरकि तरकि ऐंठति हैं लेनी लेति बनाइ॥ भई जाइ वे श्याम सुहागिनि बड़भागिनि कहवावैं। सूरदास वैसी प्रभुता तजि हमपै अब वे आवैं॥ जैतश्री ॥ धन्य धन्य अँखियाँ बडभागिनि। जिन विन श्याम रहत नहिं नेकहु कीन्हीं वनै सुहागिनि॥ जिनको नहीं अंगते टारत निशि दिन दरशन पावैं। तिनकी सरि कहि कैसे कोई जे हरिके मनभावैं। हमहींते ए भई उजागरि अब हमपर रिसमाने। सूरश्याम अति विवस भए हैं कैसे रहत लुभाने॥ बिलावल ॥ ए अँखियां बड़भागिनी जिन रीझे श्याम। अँगते नैक नटारहीं वासर अरु याम॥ ए कैसी हैं लोभिनी छबि धरति चुराइ। और न ऐसी करिसकै मर्यादा जाइ॥ यह पहिले मनही करी अब तो पछिताति। उनके गुण गुणि गुणि झुरै याहू न पत्याति॥ इंद्रीवश न्यारी परी सुख लूटति आंखि। सूरदासजे सँग रहैं तेऊ मरैं झांखि॥ बिलावल ॥ आँखिअनि तेरी श्यामको प्यारी नहिं और। जिनको हरि अंग अंगमें करि दीन्हों ठौर॥ जो सुख पूरण इन लह्यो कहा जानै और। अंबुज हरि मुख जारको दोउ भौंरी जोर॥ यहि अंतर श्रवणन परी मुरलीकी सोर। सूर चकित भई सुंदरी शिरपरी ठगोर॥ विहागरो ॥ अँखिअनकी सुधि भूलि गई। श्याम अधर मृदु सुनत मुरलिका चकृत नारि भई। जो जैसे तैसेहि रहिगई सुख दुख कह्यो नजाइ। लिखी चित्रकीसी सब ह्वै गई इक टक पल बिसराइ॥ काहू सुधि काहू सुधि नाहीं सहज मुरलिका गान। भवन रवनकी सुधि न रही तनु सुनत शब्द वह कान॥ अँखिअनते