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दशमस्कन्ध-१०


नैनन भलो मतो ठहरायो। जबहीं में वरजति हरि सँगते तवहीं तबहीं ठहरायो॥ जरत रहत एते पर निशि दिन छिनु विनु जनम गँवायो। ऐसी बुद्धि करन अब लागे मोको बहुत सतायो॥ कहा करौं मैं हारि धरी जिय कोटि जतन समुझायो। लुब्धे हेमचोरकी नाई फिरि फिरि उतही धायो॥ मोसों कहत भेद कछु नाहीं अपनोइ उदर भरायो। सूरदास ऐसे कपटिनको बिधिना हाथ छड़ायो॥ विहागरो ॥ मेरे नैना अटकि परे। सुंदर श्याम अंगकी सोभा निरखत भटकि परे॥ मोरमुकुट लट घूंघरवारे तामें लटाक परे। कुंडलतरानि किरानि ते उज्ज्वल चमकनि चटाक परे॥ चपल नैन मृग मीन कंज जित अलि ज्यों लुब्धि परे। सुरश्याम मृदु हँसनि लोभाने हमते दूरीपरे॥ विहागरो ॥ नैनन साधै ये रही। निरखत बदन नंदनंदनको भूलि न तृप्ति कही॥ पचिहारे उनकी रूचि कारण परमिति तौ न लही। मगन होत अब श्याम सिंधुमे कतहुँन थाह लही॥ रोम रोम सुंदरता निरखत आनँद उमँगि वही। दुख सुख सूर विचार एक करि कुलमर्याद ढही॥ ॥ नट ॥ नैनन साध रही सिराइ। यद्यपि निशि दिन संगहि डोलत तद्यपि नहीं अघाइ॥ पलक नहिं कहुँ नेक लागत रहत इकटक हेरि। तऊ कहुँ त्रिपितात नाहीं रूप रसकी ढेरि॥ ज्यों अगिनि घृत तृप्ति नाहीं तृषा नहीं बुझाइ। सूर प्रभु अति रुप दानी नैन लोभ नजाइ॥ कल्याण ॥ श्याम अंग निरखत नैन कहुँ अघात नाहीं। एकहि टक रहे जोरि पल पल नहिं सकत तोरि जैसे चंदा चकोर तैसी इन पाहीं॥ छबि तरंग सरितागण लोचन ए सागर जनु प्रेम धार लोभ गहानिनीक अवगाही। सूरदास एते पर तृप्ति नहीं मानत ए इनकी सोइ दशा सखी वरणी नहिं जाही॥ विहागरो ॥ लोचन सपनेके भ्रम भूले। जो छबि निरखत सो पुनि नाहीं भरम हिंडोरे झूले॥ इकटक रहत तृप्ति नहि कबहूं एते पर हैं फूले। निदरे रहत मोहिं नहिं मानत कहत कौन हम तूले॥ गोते गए कुह्योके जरजों ऐस वे निरमृले। सूरश्याम जलराशि परे अब रूप रंग अनुकूले॥ गौरी ॥ मेरे नैना ई अति ढीठ। मैं कुलकानि किये राखतिही ये हठि होत वसीठ॥ यद्यपि वे उत कुशल समर बल ए इत अतिबल हीठ। तदापि निदरि पटजात पलक छिद जृझत देत न पीठ। अंजन त्रास तजत तम कत तकि तानत दरशन डीठि। हारेहू नहिं हटत अमित बल वदन पयोधि पईठि॥ आतुर अडत अरुझि अँग अँग अनुरागनमितिमननाठि। सूरश्याम सुंदर रस अटके नहिं जानत कटु मीठि॥ बिलावल ॥ नहीं ढीठ नैननते और। कितनों मैं बरजति समुझावति उलटि कर तहें झौर॥ मोसों लरत भिरत हरि सन्मुस महा सुभट ज्या धावत। भौंह धनुष शर सरस कटाक्षन मारु करत नहिं आवत॥ मानत नहीं हारि जों हारत अपने मन नहिं टूटत। सूरश्याम अँग अँगकी सोभा लोभ सैन सो लूटत॥ विहागरो ॥ लोचन लालची भारी। इनके लए लाज या तनकी सबै श्याम सों हारी॥ बरजत मात पिता पति बंधव अरु आवै कुलगारी। तदपि रहत नंदनंदन बिन कठिन प्रकृति हठि धारी॥ नख शिख सुभग श्याम सुंदरके अंग अंग सुखकारी। सूरश्याम को जो न भजे सो कौन कुमति है नारी॥ कल्याण ॥ अतिरस लंपट नैन भए। चाख्यो रुप सुधारस हरिको लुब्धे उतहि गए॥ ज्यों व्यभिचारि भवन नहिं भावत औरहि पुरुषरई। आवत कबहुँ होत आति व्याकुल जसे गवन नई॥ फिरि उतहीको धावत जसे छुटत धनुष ते तीर। चुभे जाय हरि रूप वोषमें सुंदर श्याम शरीर॥ ऐसे रहत उतहिको आतुर मोसों रहत उदास। सूरश्याम के मन वच क्रम भए रीझे रूप प्रकाश॥ सूही ॥ ए नैना अति चपल चकोर। सरबस मूखि देत माधवको सुधि बुधि सुधन विवेक न मोर॥ अनजानत कल वैन श्रवण