कोश तजि रुचि मानतहै आक॥ जे षटरस मुख भोग करतहैं ते कैसे खरि खात। सूर सुनहु लोचन हरि रसतजि हमसों क्यों त्रिपितात॥ देवगंधार ॥ मेरे नैननहीं सब खोरि। श्यामवदन छबि निरखिजु अटके बहुरे नहीं वहोरि॥ जो मैं कोटि जतन करि राखति घूंघट वोट अंगोरा। ज्यों उड़ि मिलै वधिक खग छिनमें पलक पिंजरन तोरि॥ बुधि विवेक बल वचन चातुरी पहिलेहि लई अजोर। अति आधीन भई सँग डोलति ज्यों गुड्डीवशडोरि॥ अवधौ कौन हेतु हरि हमसों बहुरि हँसत मुख मोरि। मनहु सूर दोउ सिंधु सुधाभरि उमँगि चले मिति फोरि॥ गौरी ॥ यह सब नैननहीको लागे। अपनेही घर भेद करो इन वरजतही उठि भागे॥ ज्यों बालक जननी सों अरझत भोजनको कछु माँगे। त्योंही ए अतिही हठ ठानत इकटक पलक न त्यागे॥ कहत देहु हरि रूप माधुरी रोवत हैं अनुरागें। सूरश्याम धौं कहा चखायो रूपमाधुरी पागे॥ धनाश्री ॥ लोचन टेक परे शिशु जैसे। मांगत हैं हरि रूप माधुरी खोज परे हैं नैसे॥ बारंबार चलावत उतही रहन न पाऊं वैसे। जात चले आपुनही अबलौं राखे जैसे तैसे॥ कोटि यतन कहि कहि परबोधति कह्यो न मानहिं कैसे। सूर कहूं ठग मूरी खाई व्याकुल डोलत ऐसे॥ जैतश्री ॥ इन नैननकी टेव न जाइ। कहा करौं वरजतही चंचल पर मुख लागत धाइ॥ वाट घाट जहां मिलत मनोहर तहां मुख चलत छपाइ। गीधे हेम चोर ज्यों आतुर वह छबि लेत चुराइ॥ मनहु मधुप मधुकारण लोभी हरिमुखपंकज पाइ। घूंघट पटबश जलहि मीन ज्यों अधिक उठत अकुलाइ॥ निलजभए कुलकानि न मानत तिनसों कहा बसाइ। सूरश्याम सुंदर मुखरा बिन देखे रह्यो न जाइ॥ सोरठ ॥ जाके जैसी टेव परीरी। सोतौ टरै जीवके पाछे जो जो धरनि धरीरी॥ जैसे चोर तजै नहिं चोरी वरजेहु वहै करैरी। वरज्यो जाइ हानि पुनि पावत कतही वकत मरीरी॥ यद्यपि व्याध वधै मृग प्रगटहि मृगिनी रहै खरीरी। ताहू नादवश्य ज्यों दीन्हों संका नहीं करीरी॥ यद्यपि मैं समुझावति पुनि पुनि यह कहि कहि जु लरीरी। सूरश्याम दरशनते इकटक टरत न निमिष घरीरी॥ सारंग ॥ ए नैना मेरे ढीठ भएरी। घूंघट ओट रहत नहिं रोके हरिमुख देखन लोभ गएरी॥ जो मैं कोटि जतन करि राखे पलक कपाटनि मूँदि लएरी। उतरे उमँगि चले दोउ हठकरि करौं कहा मैं जान दएरी॥
अतिहि चपल वरज्यो नहिं मानत देखि वदन तन फेरि नएरी। सुरश्याम सुंदर रस अटके मानहुँ लोभी उहइ छएरी॥ नट ॥ नैना ढीठ अतिही भए। लाज लकुट दिखाइ त्रासी नैकहूं ननए॥ तोरि पलक कपाट घूंघट वोट मेटि गए। मिले हरिको जाइ आतुर जैहैं गुणनि मए॥ मुकुट कुंडल पीतपट कटि ललित भेष ठए। जाइ लुब्धे निरखि वह छबि सूर नंद जए॥ ॥ बिलावल ॥ नैना झगरत आइकै मोसोंरी माई। खूँट धरत हैं धाइकै चलि श्याम दुहाई॥ मैं चकृत ह्वै ठगिरहौं कछु कहत न आवै। आपुन जाइ मिले रहें अब मोहिं बोलावै॥ गए दरश जो देहिं वे तहां अपनी छाया। और कछू वहहै नहींरी उनकी माया॥ कपटिनके ढंग ए सखी लोचन हरि कैसे। सूरभली जोरी बनी जैसेको तैसे॥ सूही ॥ नैननको मत सुनहु सयानी। निशि दिन तपत सिरात न कबहूं यद्यपि उमँगि चलतपानी॥
हों उपचार अमित उर आनति खल भई लोक लाज कुलकानी। कछु न सोहाइ दहति दरशनदव वारिजबदन मंद मुसुकानी॥ रूप लकुट अभिमान निडर ह्वै जग उपहास न सुनत लजानी। बुधि विवेक बल वचन चातुरी मनहुँ उलटि उनमांझ समानी॥ आरजपथ गुरु ज्ञान गुप्त करि विकल भई तनुदशाहिरानी। याचत सूरश्याम अंजनको वह किसोर छबि जीवहि तानी॥ सारंग ॥
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सूरसागर।