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(३३०) सरसागर। . . . . . . मना भयो परिपूरण ढरि राझे गिरिधारी ॥ इनहि विना वे उनहि विना ए अंतर नाही भावत ।। । सूरदास यह युगकी महिमा कुटिल तुरत फल पावत ॥ विलावल ।। कहा भए जो आप स्वारथी नैनन अपनी निंद्य कराई । जो यह सुनत कहत सोइ धग धृग तुरतहि ऐसी भई वडाई ॥ कहा. चाहिए अपने सुखको इनतो सीखी इहै भलाई । अजहूँ जाइ कहै कोउ उनसों काहेको ... तम लाज गंवाई । अचरज कथा कहीतहौं सजनी ऐसी इह तुमसों चतुराई। सुनहु सूर जे भाज उबरेहैं तिनको तुम अब चाहति माई ॥ विहागरो। सजनी नैना गए भगाइ । अरवातीको नरिवरे । डी कैसे फिरिहैं धाइ ॥ वरत भवन जैसे तजियतुहै निकसे त्यों अकुलाइ .। सोउ अपनो नाई । पथिक पंथक वासा लीन्हो आइ ॥ ऐसी दशा भईहै इनकी सुखपायो हां जाइ । सूरदास प्रभुको . ए नैना मिले निसान वजाइ ॥ विलावल ॥ मोहन वदन विलोकि थकितभए माईरी ए लोचन मेरे। मिले जाइ अकुलाइ अगमने कहा भयो जो बूंघट घेरे ॥ लोकलाज कुलकानि छाँडे करि ववश चपल पिकी भए चेरे । काहेको वादिहि वकति वावरी मानत कौन मते अब तेरे । ललित त्रिभंगी तनु छवि अटके नाहिंन फिरत कितौऊफेरे।। सूरश्याम सन्मुख रति मानत गए मग विसरि दा ॥ हिने डेरे ॥रामकलीपाथकितभए मोहन मुख नैन । बूंघट वाटे न मानत कैसेहु वरजत वरजत कीन्हो गौनानिदरि गए मर्यादा कुलकी अपनो भायो कीन्हो । मिले जाइ हरि आतुर है कै लूटि सुधारस लीन्हो ॥ अब तू वकति वादिरी माई कह्यो मानि रहि मौन । सुनहु सुर अपनो सुख तजिकै हमहिं चलावै कौन ॥ देवगंधार ॥ मेरे इन नैनन इते करे । मोहन वदन चकोर चंद्र ज्यों यकंटक तेन टरे॥ प्रमुदित मणि अवलोकि उरग ज्यों अति आनंद भरे। निधिहि पाइ इतराइ नीच ज्यों त्यों हमको निदरे॥ मृदु मुसुकनि मनो ठग लडुआमिषि गति मति सुध विसरे । फेरि लगे अँग अँग सो हरिके समुझि न सुधि पकरे ॥ ज्यों अटके गोचर चूंघट पट शिशु ज्यों अरनि अरे।। धरेन धीर अनमने रुदनवल सो हठकरनिपरे । रही तडी खिझिलाज लकुटलै एकहु डरनडरे। सूरदास गथ खोटो काहे पारखि दोष धरे ॥ जैतश्री ॥ नैनन दशाकरी यह मेरी । आपुन भए जाइ हरिचेरे मोर्हि करत हैं चेरी ॥ जूठो खइए मीठे कारण आपुहि: खात लडावत । और जाइ सो कौन नफेको देखनतौ नहिं पावत ॥ काज होइ तो. इहौ कीजिए वृथा फिर को पाछे । सूरदास प्रभु जब जब देखत नटसवाँग सो काछे ॥ ॥ विलावल ॥ को इनकी परतीति बखाने । नैनाधौं काहेते अटके कौन अंगढरकाने ॥ उनके गुण वारेहिते सजनी मैं नीके करि जाने । चेरे भए जाइ ए तिनके कैसे उनहि पत्याने ॥ छिन छिनमें औरै गति जिनकी ऐसे आप सयाने । सूरश्याम अपने गुण सोभाको नहिं वश कार आने॥ । रामकली ॥ नैननि कठिन वानि पकरी। गिरिधर लाल रसिक विन देखे रहत न एक घरी॥ आव तही यमुनाजल लीन्हें सखी सहज डगरी । वे उलटे मग मोहिं देखके हौं उलटी उत लै गगरी ॥ वह मूरति तबते इन बलकार लै उरमांझ धरी । ते क्यों तृप्ति होत अबरंचक जिनि ॥ पाई सिगरी ॥ जग उपहास लोकलज्जा तजि रहे एक जकरी । सुर पुलक अंग अंग प्रेमभार । श्याम संग तकरी. ॥ रामकली ॥ नैननि वानि परी नहिं नीकी । फिरत सदा हरि पाछे पाछे । कहा लगनि उन जीकी ॥ लोकलाज कुलकी मर्यादा अतिही लागति फीकी । जोवीतति मोकोरी सजनी कहौं काहि यह होकी ॥ अपने मन: उन भली करीहै मोहि रहे हैं वीकी । सूरदास ए जाई लोभान मृदु मुसुकनि हरिपीकी ॥ धनाश्रीं ॥ ऐसे निठुर भये नहिं कोई ॥ जैसे निरः ।। D