मना भयो परिपूरण ढरि राझे गिरिधारी॥ इनहि बिना वे उनहि बिना ए अंतर नाहीं भावत। सूरदास यह युगकी महिमा कुटिल तुरत फल पावत॥ बिलावल ॥ कहा भए जो आप स्वारथी नैनन अपनी निंद्य कराई। जो यह सुनत कहत सोइ धृग धृग तुरतहि ऐसी भई बडाई॥ कहा चाहिए अपने सुखको इनतो सीखी इहै भलाई। अजहूँ जाइ कहै कोउ उनसों काहेको तम लाज गँवाई। अचरज कथा कहतिहौं सजनी ऐसी इह तुमसों चतुराई। सुनहु सूर जे भजि उबरेहैं तिनको तुम अब चाहति माई॥ विहागरो ॥ सजनी नैना गए भगाइ। अरवातीको नरिवरे डी कैसे फिरिहैं धाइ॥ वरत भवन जैसे तजियतुहै निकसे त्यों अकुलाइ। सोउ अपनो नहिं पथिक पंथके वासा लीन्हो आइ॥ ऐसी दशा भईहै इनकी सुखपायो ह्वां जाइ। सूरदास प्रभुको ए नैना मिले निसान बजाइ॥ बिलावल ॥ मोहन वदन विलोकि थकितभए माईरी ए लोचन मेरे। मिले जाइ अकुलाइ अगमने कहा भयो जो घूंघट घेरे॥ लोकलाज कुलकानि छाँडि करि वरवश चपल पिकी भए चेरे। काहेको वादिहि वकति वावरी मानत कौन मते अब तेरे। ललित त्रिभंगी तनु छबि अटके नाहिंन फिरत कितौऊफेरे॥ सूरश्याम सन्मुख रति मानत गए मग विसरि दाहिने डेरे॥ रामकली ॥ थकितभए मोहन मुख नैन। घूंघट बाटे न मानत कैसेहु बरजत बरजत कीन्हो गौन॥ निदरि गए मर्यादा कुलकी अपनो भायो कीन्हो। मिले जाइ हरि आतुर ह्वै कै लूटि सुधारस लीन्हो॥ अब तू वकति वादिरी माई कह्यो मानि रहि मौन। सुनहु सुर अपनो सुख तजिकै हमहिं चलावै कौन॥ देवगंधार ॥ मेरे इन नैनन इते करे। मोहन वदन चकोर चंद्र ज्यों यकटक तेन टरे॥ प्रमुदित मणि अबलोकि उरग ज्यों अति आनंद भरे। निधिहि पाइ इतराइ नीच ज्यों त्यों हमको निदरे॥ मृदु मुसुकनि मनो ठग लडुआमिषि गति मति सुध विसरे। फेरि लगे अँग अँग सो हरिके समुझि न सुधि पकरे॥ ज्यों अटके गोचर घूंघट पट शिशु ज्यों अरनि अरे। धरे न धीर अनमने रुदनबल सो हठकरनिपरे। रही तडी खिझिलाज लकुटलै एकहु डरनडरे। सूरदास गथ खोटो काहे पारखि दोष धरे ॥ जैतश्री ॥ नैनन दशाकरी यह मेरी ।
आपुन भए जाइ हरिचेरे मोहिं करत हैं चेरी॥ जूठो खइए मीठे कारण आपुहि
खात लडावत। और जाइ सो कौन नफेको देखनतौ नहिं पावत॥ काज होइ तौ
इहौ कीजिए वृथा फिरै को पाछे। सूरदास प्रभु जब जब देखत नटसवाँग सो काछे॥ ॥ बिलावल ॥ को इनकी परतीति बखाने। नैनाधौं काहेते अटके कौन अंगढरकाने॥ उनके गुण वारेहिते सजनी मैं नीके करि जाने। चेरे भए जाइ ए तिनके कैसे उनहि पत्याने॥ छिन छिनमें औरै गति जिनकी ऐसे आप सयाने। सूरश्याम अपने गुण सोभाको नहिं वश कार आने॥
रामकली ॥ नैननि कठिन वानि पकरी। गिरिधर लाल रसिक विन देखे रहत न एक घरी॥ आबतही यमुनाजल लीन्हें सखी सहज डगरी। वे उलटे मग मोहिं देखके हौं उलटी उत लै गगरी॥ वह मूरति तबते इन बलकरि लै उरमांझ धरी। ते क्यों तृप्ति होत अबरंचक जिनि पाई सिगरी॥ जग उपहास लोकलज्जा तजि रहे एक जकरी। सुर पुलक अँग अंग प्रेमभरि
श्याम संग तकरी॥ रामकली ॥ नैननि वानि परी नहिं नीकी। फिरत सदा हरि पाछे पाछे। कहा लगनि उन जीकी॥ लोकलाज कुलकी मर्यादा अतिही लागति फीकी। जोवीतति मोकोरी सजनी कहौं काहि यह हीकी॥ अपने मन उन भली करीहै मोहि रहे हैं वीकी। सूरदास ए जाई लोभान मृदु मुसुकनि हरिपीकी॥ धनाश्रीं ॥ ऐसे निठुर भये नहिं कोई॥ जैसे निरठु
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सूरसागर।