काहये काहि॥ सारंग ॥ नैना यहि ढंग परे कहा करौं माई। आए फिरि कौन कान कबहि मैं बुलाई॥ अबलौं इह आश रही मिलिहैं य आई। भाँवरिसी पारिफिरें नारि ज्यों पराई। आवतहैं ताहि लेन ऐसे दुःखदाई। मारेको मारतहैं बडे लोग भाई॥ अतिही ए करत फिरत दिनही दिन ढिठाई।
सूरदास प्रभु आगे चलौ कहैं जाई॥ गौरी ॥ यहतो नैननिहीं जु कियो। सर्वस जो कछु रह्यो हमारे सो लै हरिहि दियो॥ बुधि विवेक कुलकानि गँवाई इंद्रिन कियो वियो। आपुन जाइ बहुरि आयो यह चाहत रूपलियो॥ अब लाग्यो जिय घात करनको ऐसो निठुर हियो। सुनहु सुर प्रतिपालेको गुण वैरई मानि लियो॥ नट ॥ मेरे नैन चकोर भुलाने। अहनिशि रहत पलक सुधि बिसरे रूप सुधान अघाने॥ पल घटिका घरी याम दिनहि दिन युग ही युग बरजाने। स्वाद परचो निमिषौ नहिं त्यागत ताही मांझ समाने॥ हरि मुख विधु पीवत ए व्याकुल नेकहुँ नहीं थकाने सूरदास प्रभु निरखि ललित तनु अंग अंग अरुझाने॥ सारंग ॥ हरि मुख विधु मेरी अँखियां चकोरी। राखे रहति वोट पट जतननि तऊ न मानत कितकि निहोरी॥ वरवसही इन गही मूढता प्रीतजाय चंचल सों जोरी। विवसभए चाहत उड़िलागन अटकत नेक अंजनकी डोरी॥ वरवसही इन गही चपलता करत फिरत हमहूं सों चोरी। सूरदास प्रभु मोहन नागर वरषि सुधारस सिंधु झकोरी॥ विहागरों ॥ लोचन लालच ते नटरे। हरि सारंग सों सारंग गीधे दधिसुत काज जरे॥ ज्यों मधुकर वश परे केतकी नहिं ह्यांते निकरे। ज्यों लोभी लोभहि नहिं छांडत ए अति उमँगि भरे॥ सन्मुख रहत सहत दुख दारुण मृग ज्यों नहीं डरे। वह धोखे यह जानत है सब हित चित सदाकरे॥ ज्यों पग फिर फिर परत प्रेमवश जीवत मुरछि मरे। जैसे मीन अहार लोभते लीलत परे गरे॥ ऐसेहि ए लुब्धे हरि छबि पर जीवत रहत भिरे। सूरसुभट ज्यों रण नहि छांडत जबलौं धरनि गिरे॥ नट ॥ मेरे नैननि कोट समुझावैरी। अपनो घर तुम छांडे डोलत मेरे ह्यां ले आवैरी॥ इहै बूझि देखो नीके कार जहांजात कछु पावैरी।वृथा फिरत नटके गुण देखत नानारूप बनावैरी॥ देखतके सब सांचे लागत ताहि छुबन नहिं पावैरी। सुरश्याम अंग अंग माधुरी शत शत मदन लजावैरी॥
नट ॥ हरि छबि अंग नटके ख्याल। नैन देखत प्रगट सबकोउ कनक मुकुता लाल॥ छिनकमें मिटिजात सो पुनि और करत विचार। त्योही ए छबि और औरै रचत चरित अपार॥ लहै तब जो हाथ आवै दृष्टि नहिं ठहरात। वृथा भूले रहत लोचन इनहि कहै कोइबात॥ रहतनिशिदिन संग हरिके हरषनहीं समात। सूर जब जब मिले हमको महा विह्वल गात॥ कान्हरो ॥ भईगईए नैनन जानत। फिरि फिरि जात लहत नहि सोभा हारेहुँ हारि नमानत॥ बूझहु जाइ रहत निशि वासर नैक रूप पहिंचानत। सुनहु सखी सतरातइतेपर हमपर भौहें तानत॥ झूठै कहत श्याम अंग सुंदर बातैं गढि गढि बानत। सुनहु सूर छबि अति अगाधगति निगम नेति जेहि गावत॥ विहागरो॥ श्याम छबि लोचन भटकि परे। अतिहि भए बेहाल सखीरी निशिदिन रहत खरे॥ हमते गए लूटिलेवेको उनहि परयो अब सोच। अपनो कह्यो तुरत फल पायो राखति घुंघट वोट॥ इकटक रहत पराएवशभए दुख सुख समुझि नजाइ। सूर कहौ ऐसो को त्रिभुवन आवै सिंधु थहाइ॥ नट ॥ नैन भये वोहितके काग। उड़ि उडि जात पार नहिं पावे फिरि आवत नहिं लाग॥ ऐसी दशा भईरी इनकी अब लागे पछितान। मो वरजत वरजत उठि धाये नहिं पायो अनुमान॥ वह समुद्र वोछे वासन ए धरे कहा सुखराशि। सुनहु सूरए चतुर कहावत वह छबि महा प्रकाशि ॥ गौरी ॥ हारि जति नैना नहिं जानत। धाए जात तहींको फिरि फिरिवै कितनो अपमानत॥ परे रहत द्वारे सोभाके वोई गुण गुणि गानत। हरषत रहत सबनिको निदरै नेकहु
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दशमस्कन्ध १०