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(३२६). सूरसागर।... . कमल पानकरि माते ताज उन मत्तभएरी । ज्यों कांचुरी भुअंगम तनही फिरि नतकै जुगए। सुगएरी। ऐसी दशा भईरी इनकी श्यामरूप में मगन रएरी। सूरदास प्रभु अगणित सोभा नाजानौं केहि अंग छएरी ॥सारंगाानन निरखि अजहूं न फिरेरी।हरिमुख कमल कोश रस लोभी मनहु मधुप मधु माति गिरेरी ।। पलकनि शूल सलाकसहीहै निशि वासर दोउ रहत अरेरी । मानहु विवर गए चलि कारे तजि केचुरी भये निनरेरी ॥ज्यों सरिता पर्वतकी खोरी प्रेम पुलक श्रमस्वेद झरेरी बूंद बूंद वै मिले सुर प्रभुना जानों केहि घाट तरेरी।सारंगा नगए सु फिरे नहि फेरीियद्यपि घेरि घरि । मैं राखात रहे नहीं पचिहारी टेरिकहाकहौं सपनेहुँ नहिं आवत वश्यभए हरिहीके जाईमोते कहा। चूक उनि जानी जाते निपट गए विसराई॥छिनहकी पहिचानि नमानी उनको हम प्रतिपाले प्रेम।। जोतजि गए हमारे वैसेइ उन त्याग्यो हमहैं वोहि नेम । मात पिता संगहि प्रतिपालै सँगही संग रहै. निशियामासुनहु सूरए वालसँघाती प्रेम विसारि मिले टरिश्यामनिट | नैननि देखिवेकी गौरेनिंदः । गोपकुमार सुंदर किए चंदन खौरिशीशपिंड शिखंड भाजत नखशिखा छवि औरासुभग गावान मृदुवजावनि वैनसुर ललितौरकुटिल कच मृगमद तिलक छविवचन मंत्र ठगौरासूर प्रभु नट रूप नागरनिराख लोचन वोर॥मलारतियते नैन रहे एक टकही।जवतेश्याम त्रिभंगललित गति जातंभैइन । तकही।मुरली धरे अरुन अधरनिपर कुंडल झलक कपोलानिरखत एकटक पलक भुलानो मानो विकाने मोला हमको वै काहेन विसाएँ अपनी सुधि उन नाहिं । सुरश्याम छवि सिंधु समाने वृथा। तरुनि पछित्ताहि ॥ मलार । नैना नैननि माँझ समाने । टारे नटरत एक मिलिं मधुकर सुरसमत्तः । अरु झाने ॥ मन गति पंगु भई सुधि विसरी प्रेम पराग लुभाने । मिले परस्पर खंजन मानों झंगरत निरखि लजाने।।मन वच क्रम पलवोट नभावत छिनु युग वरस समाने सूरश्याम के वश्य भए ए जेहि वीतै सो जाने ॥ गौरी ॥ मेरे माई लोभी नैन भए । कहा करौं ए कह्यो नमाने परज तही जो गए ॥ रहत नबूंघटबोट भवनमें पलक कपाट दए । लए फंदाइ विहंगम मानोः मदनः । व्याध विधए । नहिं परमिति मुख इंदु सुधानिधि सोभा नितहि नए । सूरश्याम. तनु पीत वसन छवि अंग अनंग जितए ॥ विहागरो ॥ नैना लोभहिं लोभ भरे । जैसे चोर भरे घरहीमें बैठत उठत खरे ॥ अंग अंग सोभा अपार निधि लेत नसोच परे । जोइ देखै सोइ सोइ निर्मोलै करलैः ।... तहीं धरै ॥ त्यों लुब्धे ए टरत नटारे लोक लाज नडरे। सूर कछू उनिहाथ न आयो लोभ जाग पकरे । सोरठ ।। नैना वोछे चोर सखीरी। श्याम रूप निधि नोखे पाई देखत गए भरीरी ॥ अंग . अंग छवि चित्त चलायो सो कछु रहति.परीरी। कहा लेहिं कह तजौ विवस भए तैसिय करनि करीरी ॥ पुनि पुनि जाइ एक एक लेते आतुर धरणि धरीरी । भोरे. भए भोरसों द्वैगयो धरे । जगार परीरी ॥ जो कोउ काज करै विन बूझे पेलि महत्त हरीरी। सूरझ्याम वशः परे जाइकै ज्यो । मोहिं तजी खरीरी ॥ मलार ।। नैना मारेहू पर मारत । राखी छवि दुराइ हृदय में तिनको हियः | भरि डारत ॥ आपुन गए भली कीन्ही अब उनहि इहांते टारत । वरवशही लै जान कहतहे पंजः | आपनी सारत ॥ ऐसे खोज परयो यह लेहैं आवत जानत हारत । उनके गुण कैसे कहि आवै सूरः पयारहि झारत ॥ मलार ॥ नैना खोज परेहैं ऐसे । नैक रही हरि मूरति, हृदय डाह मरतहैं जैसे .. मनतो गयो इंद्रियन लैकै बुधि मति ज्ञान समेत । जिनकी आशसदा हम राबैं तिन्ह दुख दीन्हो | जेत ॥ आपुन गए कौन सो चाल करत ढिठाई और । नैक रही. छवि दुति हिरदैमें ताहि । लगावत ठौर ॥ गए रहे आए एहि कारज भार टारतहैं ताहि । सूरदास नैनानेकी महिमा कोहै.