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(३२१) - सूरसागर। .... ...... निरवार ॥ संग गए वै सबै अटके लटके अंग अनूप । एक एकहि नहीं जानत मारे सोभा कूपः॥ जो जहां सो तहां डारयो नेक तनु सुधि नाहि । सूर गुरुजन डरहि मानत इहै कहि पछिताहिए। ॥ नेतश्री ॥ लोचन भए पखेरूमाइ । लुब्धेश्याम रूप चाराको अलक फंद परे जाइ। मोर मुकुट टाटी मानो यह बैठनि ललित त्रिभंग । चितवनि ललित लकुट लासालटकनि पिय कापै । अलक तरंग ॥ दौरि गहनि मुख मृदु मुसुकावनि लोभ पांजरा डारे। सूरदास मन व्याध हमारों गृह वनते जु विसारे ।। गुंडमलार ॥ कपट कन दरश खग नैन मेरे। चुनत निरखनि तुरत आपुही उड़ि मिले परयो चारा पेट मंत्र केरे ॥ निरखि सुंदर बदन मोहनी शिर परि रहे एकटक निरखि डरत नाहीं॥ लाज कुलकानि बन फेरि आवत कबहुँ रहत नहिं नैकहू उतहि जाहीं ॥ मृदु हँसनि व्याध पढि मंत्र बोलनि मधुर श्रवन ध्वनि सुनतइत कौन आवासूर प्रभु श्याम छवि धामही में रहै गेह बन नाम मनते भुलावै ॥ मारू ॥ नैन खग श्याम नीके पठाए । किए वश कपट कन मंत्र के डारिकै लए अपनाइ मनो इन पठाए । वेगिधे उनाहै सों रूप रस पान कार नेकहू टरत नहिं चीन्हि लीन्हे । गए हमको त्यागि बहुरि कबहूँ न फिरे केचुरी उरग ज्यों छोडि दीन्हे ॥ एक लै गए हरदी चून रंग ज्यों कौन पै जात निरुवारि माई । सूर प्रभु कृपामये कियो उन वास राचे निज देह बन सघन सुधि भुलाई ॥ विहागरो ॥ नैना ऐसे हैं विश्वासी । आप काज कीने हमको. तजि तबते भए निरासी ॥ प्रतिपालन करि वड़े कराये जानि आपनो अंग । निमिष निमिष में : धोवति आंजति सिखए भावत रंग। हम जान्यो हमको ये हहै ऐसे गये पराइ । सुनहु सुर स्वर : जतही बरजत चेरे भए वनाइ ॥ जैतश्री ॥ नैना भए प्रगटही चेरे । ताको कछु उपकार न मानत हम ए किए बडेरे॥ जो वरजो यह वात भली नहिं हँसत नैन कल जात । फूले फिरत सुनावत सबको एते पर न डरात ॥ इहौ कही हमको जिनिछाडौ तुम विनु तनु वेहाल । तमकि उठे यह बात सुनतही गीधे गुण गोपाल। मुकुट लठक भौंहनकी मटकनि कुंडल झलक कपोल। सूरश्याम मृदु मुसुकनि ऊपर लोचन लीन्हे मोल ॥ सोरठ ॥ लोचन ग भएरी मेरे । लोकलाज बन घन वेली तजि आतुरलै जुगडेरे॥श्यामरूप रस बारिज लोचन तहां जाइ लुब्धेरे । लपटे । लटकि पराग विलोकनि संपुट लोभ परेरे॥ हँसनि प्रकाश विभास देखिकै निकसत पुनि तहां बैठत । सूरश्याम अंबुज कर चरणीन जहँ तहँ भ्रमि भ्रमि बैठत ॥ रामकली ॥ लोचन मँगको शरसपागे। श्याम कमलपदसों अनुरागे॥ सकुचकानि बनवेली त्यागी । चले उड़ाइ सुरति रति पागी। मुक्तिपराग रसहि इनचाख्यो । नव सुख फूल रसहि इनि नाख्यो । इनते लोभी और न कोई । जो पटतर दीजै कहि सोई ॥ गए तबहिते फेरि न आए। सूरश्याम वेगहि अटकाए । सारंग । नैना पंकज पंक खचे । मोहन मदनश्याम मुख निरखत ध्रुवविलास रचे ॥ बोलनि हँसनि विराजमान अति श्रुति अवतंस सचेजिनु पिनाककी आशलागि शशि सारंग शरन बच॥चंदचकोर चातक ज्यों जलधर हर रिपु हरषि नचे । पुहुपवास लै मधुप शैलवन धनु कार भवन रचे॥ परमप्रीतिके कुंड महागज काढत बहुत पचौसूरदास प्रभु तुम्हरे दरशको मुनि जन मानि मचे। ॥सारंगा नैना वीधे दोऊमेरे। मानौ परे गयंद पंक महि महासबल बल केरे॥निकसतं नहीं अधिक बल कीने जतन न वने घनेरे । श्याम सुंदरके दरश परसमें इत उतः फिरत न फेरे ॥ लंपट: लवनि अटक नाहिं मानति चंचल चपल अरेरे । सूरदास प्रभु निगम अगम सुनि सुनि सुमिरत । बहुतेरे ॥ धनाश्री ॥ मेरे नैन कुरंग भए । जोवन बनते निकसि चले ए मुरली नाद रए । रूप व्यायः ।