तुमसों फिरिकै रुचि मानैं कहति अचंभव बात॥ रसलंपटवै भए रहतहैं ब्रज घर घर यह वानी। हमहूँको अपराध लगावहिं एऊ भई देवानी॥ लूटहिं ए इंद्री मन मिलिकै त्रिभुवन नाम हमारो। सूर कहा हरि रहत कहा हम यह काहे न विचारो॥ धनाश्री ॥ नैननते यह भई बड़ाई। घर घर इहै चवाव चलावत हमसों भेट नमाई॥ कहां श्याम मिलि बैठी कबहूं कहनावति ब्रज ऐसी। लूटहिए उपहास हमारो यहतौ बात अनैसी॥ एई घर घर कहत फिरतहैं कहा करैं पचिहारी। सूरश्याम यह सुनत हँसतहैं नैन किए अधिकारी॥ सारंग ॥ नैनभए अधिकारी जाइ। यह तुम बात सुनी
सखि नाहीं मन आए गए भेद बताइ॥ जब आवैं कबहूं ढिग मेरे तब तब इहै कहतहैं आइ॥ हमहींलै मिलयो हम देखत श्यामरूपमें गए समाइ॥ अब वोऊ पछितात बात कहि उनहूंको वै भए बलाइ अपनो कियो तुरत फल पायो जैसी मन कीन्ही अधमाइ॥ इंद्री मन अब नैनन पाछे ऐसे उन वश किए कन्हाइ। सूरदास लोचनकी महिमा कहा कहैं कछु कही नजाइ॥ रामकली ॥ जबते हरि अधिकार दियो। तबहींते चतुरई प्रकाशी नैनन अतिहि कियो॥ इंद्रिनपर मन नृपति कहावत नैनन इहै डरात। काहेको मैं इनहिं मिलाए जानि बूझि पछितात॥ अब सुधि करन हमारी लागे उनकी प्रभुता देखि। हियो भरत कहि इनहि ढराऊं वे इकटक रहे देखि॥ अब मानीहैं दोष आपनी हमहीं बेच्यो आइ। सूरदास प्रभुके अधिकारी एई भए बजाइ॥ बिलावल । यद्यपि नैन भरत ढरि जात। इकटक नैक नहीं कहुँ टारत तृप्ति नहोत अघात॥ अपनेही सुख मरत निशादिन यद्यपि पूरणगात। लैलै भरत आपने भीतर औरहि नहीं पत्यात॥ जोइ लीजै सोईहै अपनो जैसे चोर भगात। सुनहु सूर ऐसे लोभी धनि इनको पितु अरु मात॥ सोरठ ॥ नैना अतिही लोभ भरे। संगहि संग रहत वै जहँ तहँ बैठत चलत खरे॥ काहूकी परतीति नमानत जानत सबहिन चोर। लूटत रूप अखूट दामको श्याम वश्ययो भोर॥ बडे भाग मानी यह जानी कृपिण न इनते और। ऐसी निधि मैं नाउँ न कीन्हो कह लैहै कह ठौर॥ आपुन लेहिं औरहूं देते यश लेते संसार। सूरदास प्रभु इनहि पत्याने कोकहै वारहि वार॥ कान्हरो ॥ ऐसे आपस्वारथी नैन। अपनोई पेट भरतहैं निशि दिन और नलैन नदैन॥ वस्तु अपार परयो वोछे कर ए जानत घट जैहै। को इनसों समुझाइ कहै यह दीन्हेही अधिकैहै॥ सदा नहीं रैहो अधिकारी नाउँ राखि जो लेते। सूरश्याम सुख लूटै आपुन औरनिहूको देते॥ ॥ बिलावल ॥ जे लोभी ते देहिं कहारी। ऐसे नैन नहीं मैं जाने जैसे निठुर महारी॥ मन अपनो कबहूं वरु ह्वैहै ए नहिं होहिं हमारे। जबते गए नंदनंदन ढिग तबते फिरि न निहारे॥ कोटि करौं वै हमहिं न मानैं गीधे रूप अगाध। सूरश्याम जो कबहूं त्रासैं रहै हमारी साध॥ नट ॥ नैना भये घरके चोर। लेत नहिं कछु बनै इनसों देखि छबि भए भोर॥ नहीं त्यागत नहीं भागत रूप जाग-प्रकाश। अलक डोरनि बांधि राखे तजौ उनकी आश॥ मैं बहुत कार वरजिहारी निदरि निकसे हेरि। सूरश्याम बँधाइ राखे अंगके छबि घेरि ॥ बिलावल ॥ भली करी उन श्याम बँधाए। वरज्यों नहीं करयो उन मेरो अति आतुर उठि धाए॥ अल्पचोर बहुमाल लुभाने संगी सबन धराए। निदार गए तैसो फल पायों अब वै भए पराए॥ हमंसों इन अति करी ढिठाई जो करि कोटि बुझाए। सूरगए हरि रूप चुरावन उन अपवश करि पाए॥ विहागरो ॥ लोचन चोर बांधे श्याम। जातही उन तुरत पकरे कुटिल अलकनि दाम ॥ सुभग ललित कपोल आभा गीधे दाम अपार। और अंग छबि लोग जागे अब नहीं
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दशमस्कन्ध-१०