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सूरसागर।


फिरति भवन वन जहँ तहँ तूल आक उधराइ। देह नहीं अपनीसी लागति यहहै मनो पराइ॥ सुनहु सखी मनके ढँग ऐसे ऐसी बुद्धि उपाइ। सूरश्याम लोचन वश कीने रूप ठगोरी लाइन॥ नट ॥ नैन नमेरे हाथ रहे। देखत दरश श्यामसुंदरको जलकी ढरनि वहे॥ वह नीचेको धावत आतुर ऐसेहि नैन भए। वहतौ जाइ समात उदधिमें ए प्रतिअंग रए॥ वह अगाध कहुँ वार नपारन एउ सोभा नहिं पार। लोचन मिले त्रिवेनी ह्वैकै सूर समुद्र अपार॥ विहागरो ॥ मन ते ए अति ढीठ भए। वेतो आइ बोलते कबहूं एजु गए सुगए॥ ज्यों भुवंग काचरी विसारत फिरि नहिं ताहि निहारत। तैसेहि जाइ मिले इकटकह्वै डरत लाज निरवारता॥ इंद्रिन सहित मिल्यो मन तबहीं नैन रहे मोहिंशालत। सूरश्याम सँगही सँग डोलत औरनिके घर घालत ॥ सोरठ ॥ लोचन गए निदरिके मोकों। तोहूको व्यापीरी माई कहा कहतिहै मोकों॥ मैं आई दुख कहन आफ्नी तेरे दुख अधिकारी। जैसे दीनदीनसों याचै वृथाहोइ श्रमभारी॥ मन अपनो वश कैसेहुँ कीजै याहीते सचुपावै। सूरदास इंद्रिन समेत अरु लोचन अवहिं मँगावै॥ गौरी ॥ नैना नीके उतहि रहे। मन जब गयो नहीं मैं जान्यो ए दोउ निदरि गहे॥ एतौ भए भावते हरिके सदा रहत इन माहीं। कर मीडति शिर धुनति नारि सब यह कहि कहि पछिताही॥ मूरखके ज्यों बुद्धिपाछिली हमहूं करि दियो आगे। अबतौ मिले सूरके प्रभुको पावतिहौ अब मांगे॥ पूरवी ॥ नैना नहिं आवैं तुव पास। कैसेहूं करि निकसे ह्यांते अतिही भए उदास॥ अपने स्वारथके सबकोई मैं जानी यह बात। यह सोभा सुख लूटि पाइकै अब वै काहि पत्यात॥ षटरस भोजन त्यागि कहौको रूखीरोटीखात। सुरश्याम रसरूप माधुरी एतेपर न अघात॥ जयतश्री ॥ नैन परे रस श्याम सुधामें। शिव सनकादि ब्रह्म नारद मुनि एलुब्धेहैं जामें॥ ऐसो रस विलास नानाविधि सात खवावत डारत। सुनहु सखी वैसी निधि तजिकै क्यों नहिं तुमहि निहारत॥ जिनि वह सुधापान सुख कीन्हों ते कैसे कटु देखत। त्योंए नैन भए गर्वीले अब काहे हम लेखत॥ काहेको अपसोसमरतिहौ नैन तुम्हारे नाही। मिले जाइ सूरजके प्रभुको इत उत कहूं नजाहीं॥ भैरव ॥ नैन परे हरि पाछेरी। मिले अतिहि अतुराइ श्यामको रीझे नटवर काछेरी॥ निमिष नहीं लागत इकटकही निशि वासरनहिं जानतरी। निरखत अंग अंगकी। सोभा ताही पर रुचि मानतरी॥ नैन परे परवशरी माई उनको इनि वश कीन्हेरी। सूरजप्रभु सेवा कार रिझए उन अपने करिलीन्हेरी॥ कल्याण ॥ नैना हरि अंगरूप लुब्धेरी माई। लोक लाज कुलकी मर्यादाविसराई। जैसे चंदा चकोर मृगीनाद जैसे। कंचुरि ज्यों त्यागि फनिग फिरत नहीं तैसे॥ जैसे सरिताप्रवाह सागर को धावै। कोऊ श्रम कोटि करै तहां फिरिन आवै॥ तनुकी गति पंगुकिए सोचति ब्रजनारी। तैसेई मिले जाइ सूरजप्रभु ढारी॥ कल्याण ॥ लोचन भए श्याम वश्य कहा करौं माईरी। जितही वै चलत तितहि आपु जात धाईरी॥ मुसुकनि दै मोललिए किए प्रगटचेरी। जोइ जोइ वै कहत करत रहत सदा नेरी॥ उनकी परतीतश्याम मानत नहिं अजहूं। अलकनि रजुवांधि धरे भाजै जिनि कबहूं॥ मन लै इन उनहि दयो रहत सदा सँगही। सूरश्याम रूप राशि रीझे वा रँगही॥ विहागरो ॥ नैनाभए वजाइ गुलाम। मनवेच्यो लै वस्तु हमारी सुनहु सखी एकाम॥ प्रथम भेद करि आयो आपुन मांगि पठायो श्याम। वेचि दिये निधरक हरि लीन्हें मृदुमुसुक निदै दाम॥ यह वाणी जहँ तहँ परकाशी मोल लिएको नाम। सुनहु सूर यह दोष कौनको यह तुम कहौ नवाम॥ मारू ॥ कियो वह भेद मन और नाही। पहिलेही जाइ हरिसों कियो भेद वहि और वे काज कासों बताही॥ दूसरे आइकै इंद्रियनि लै गयो ऐसे अपदाँवसव इनहि