तेरे नितही प्रति आवैं सुनहु राधिका गोरी हो। ऐसो आदर कबहुँ न कीन्हों मेरी अलकसलोरी हो॥ काहे आज हरष जिय उपज्यो कहा विभव तुम पायोहो। कीधौं आजु मिले नँदनंदन पछि लहु दुख बिसरायो हो॥ उमँग्यो प्रेम रहत नाहिं रोके सखियन कहति सुनावैहो। सूरश्याम मेरे भवन पधारे यह कहि कहि मन भावैहो॥ विहागरो ॥ आये श्याम अबहिं मेरे गेह। कही जाति न सखी मोषै मिले जौन सनेह॥ करति अंग श्रृंगार बैठी मुकुर लीन्हे हाथ। आइ पाछे भए ठाढे चतुर बर ब्रजनाथ॥ भाव इक मैं कियो भोरे ताहि कहत लजाउँ। निरखि अपनी छाँहको त्रिय और आनि डराउँ। जालरंध्रनि रहे ठाढे निरखि कौतुक श्याम। नैन औचक आनि मूंदे सुनहु हरिके काम॥ देतिहौं उरहनों तुमको भये डोलत चोर। सूर प्रभु आए अचानक भवन बैठी भोर॥ बिलावल ॥ श्याम संग सुख लूटति हौ। सुनि राधे रीझे हरि तोको अब उनते तुम छूटति हौ॥ भली भई हरिके रस पागी वै तुमसों रति मानत हैं। आवत जात रहत घर तेरे अंतरही पहिचानत हैं॥ तुम अति चतुर चतुर वे तुमते रूप गुणनि दोउ नाके हो। सूरदास स्वामी स्वामिनि दोउ परमभावते जीके हो॥ अडानो ॥ भलेही मेरे लालन आएरी आजु मैं फूली अंग न समाई। गाऊं बजाऊँ रस प्रेम भरि नाचौं तन मन धन न्यवछावर करि डारों एहि विधि करति बधाई। धनि धनि भाग धनि धनिरी सुहाग धनि अनुराग धनि धन्य कन्हाई॥ धनि धनि रैनि धनि धनि दिन जैसो आजु धनि घरी धनि पल धनि धनि धनि माई। धनि गेह धनि देह धनि री श्रृंगार वह धनि प्रतिबिंब धनि रही मैं भुलाई॥ धनि धनि सूर प्रभु धनि अवलोकनि धनि नैन मूंदे कर धान धान पिय सुखदाई॥ ईमन ॥ बनि बनि आवत हैं लाल भाग वडेरी मेरे। दरश देखन को अति सुख उपजत और सन्मुख जब हेरे॥ तब मैं हँसति जब मंद मुसुकात वै आनंद मानि पिय आवत नेरे। सूरदास प्रभुकी सुरतिहै महा रसाल टरति नसांझ सबेरे॥ ईमन ॥ श्याम अचानक आएरी। पाछेते लोचन दोउ मूंदे मोको हृदय लगाएरी॥ लहनो ताको जाके आवै मैं वडभागिनि पाएरी। यह उपकार तुम्हारो सजनी रूसे कान्ह मिलाएरी॥ ल्याइ तुरत जादिन तू हरिको मैं अपराध क्षमाएरी। सूरदास प्रभु नैननि लागे भावत नहिं विसराएरी॥ अथ नैननि समयके पद॥ टोडी ॥ हरि अनुराग भरी ब्रजनारी। लोक सकुच कुलकानि विसारी॥ सासु ननद हारी दैगारी। सुनत नहीं को कहत कहारी॥ सुत पति नेह जगत इह जान्यो। ब्रज युवती तिनुकासों मान्यो॥ काचो सूत तोरि सो डारयो। उरग कंचुकी फिरि न निहारयो॥ ज्यों जलधार फिरै पुनि नाही। जैसे नदी समुद्र समाही॥ जैसे सुभट खेत चढ़ि धावै।जैसे सती बहुरि नहिं आवै। ऐसे भजी नंदनंदनको। सकुची नहिं त्यागत गृह जनको॥ सूरज प्रभु सब घोषकुमारी। ज्यों गज पंक नसकै निवारी॥ सोरठ ॥ एहि अंतर तेही खोरिही नँद नंदन आए।
सखिन सहित ब्रजनागरी पल विनु टकलाए॥ मोर मुकुट शिरसोहई श्रवणनि वर कुंडल। ललित कपोलनि झलमले सुंदर अति निर्मल॥ तरुनिगई चकचौंधिकै नहिं नैन थिराही। सूरश्याम छबि निरखिकै युवती भरमाही। सोरठ ॥ देखो श्याम अचानक जात। ब्रजकी खोरि अकेले निकसे पीतांबर कटिपर फहरात॥ लटकत मुकुट मटक भौंहनिकी चटकत चलत मंद
मुसुकात। पगद्वै जात बहुरि फिरि हेरत नैन सैन देके नंदतात॥ निरखत नारि निकर विथकित भए दुख सुख व्याकुल झुलति सिहात। सूरश्याम अंग अंग माधुरी चमकि चमकि चकचौंधत गात॥ सोरठा ॥ सघन कल्पतरु तर मन मोहन। दक्षिण चरन चरन पर दीन्हे तनु त्रिभंग मृदु जोहन॥ मणिमय जडित मनोहर कुंडल शिखी चंद्रिका शीश रही फवि। मृगमद तिलक अलक
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सूरसागर।