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(३१६) तनु सुधि विसराइ।। बिलावल कहति छाँहों नागरी कोहै तू माई। मिली नहीं बजगाँव में री कहो कहांते आईनाम कहाहै सुंदरी कहि सोहदिवाई। कहौ न मेरे साधहैं मुख वचन सुनाई । दिननि | हमहुँ तुम सरवरी तुव छवि अधिकाई । और संग नहिं कोउ लई यह कहि डरपाई ॥ जानति हौं यह नाहिं सुनी ह्यांकी अधमाई । अभरन लेत छिडाइकै ब्रज ढीठ कन्हाई ॥ सदन जाहु मेरे । कहे पटु अंग छपाई । सूरश्याम जो देखिहै करिहै वरिआई ॥ धनाश्री ॥ मैं उनके गुण नीके जानात । सदन जाहु मर्यादा जैहै कह्यो न काहे मानति ॥अपनी दशा कहौं तो आगे जैसी विपति वनाइ । मथुरा चली जाति दधि वेचन घरि लई उन आइ ॥ गोरस लियो अभूपण छीन्यो तुम एक हम अनेक । सूरश्याम जो देखन पैहै करिहै अपनी टेक ॥ बिलावल ॥ तेरे हित को कहतिहों मानो जिनि मानो। तू आई है आजुही उनको का जानो।ऐसो ढीठ नहीं कहूं त्रिभुवनमें , माई । नारि पराई देखिकै हँसि लेत बोलाई । सो अपने सहजहि मिलै उनके गुण ऐसे । भूषण लेत मँगाइके औरौ गुण नैसे । काहूको नहिं डरपही मथुरापति धरकै । मनको भायो करत हैं कहूं नहि हरकै ॥ तुम सुंदर काकी वधू घर जाहु सवारी।। सुरश्याम सुनि सुनि हँसे मनही मन भारी॥ मारू ॥ नागरी चरित पिय चाकेत भारी। अंगकी छवि निरखि प्रथमही विवस द्वै प्रतिविष निरखत देह सुधि बिसारी ॥ एक राधा दूसरी वाहि जानि जिय नागरी पास आवत लजाही । नैन ठहराइ ठहराइ पुनि पुनि रहै कहै नहिं कछु, हरपत डराही ॥ पुनि उठत जागि देख मुकुरनारि कर ललचात अंकभरि लैन लोरै । सूर प्रभु भावती के सदा रस भरे नैन भारि भरि प्रिया रूप चौगुंडमलार ॥धन्य हरि नैन धनि रूप राधा । धन्य वह मुकुर धनि धन्य प्रतिबिंव मुख धन्य दंपति रहति भेष आधा।धन्य शृंगार धनि धन्य निर खनि श्याम धन्य छवि लूटि लूटत मुरारी । सूर प्रभु चतुर चतुरी नवल नागरी रहै प्रतिबिंब पर नैन जोरी ॥ केदारो ॥ श्यामा जू आपनो रूप देखि रीझि रीझि नेकहु दर्पण दूरि न करति । अपनी छवि जु निहारति अपनों तन मन वारति विवस वै प्रतिबिंब के पांइन परति ॥ कवहूँ श्यामकी सकुच मानति यह जिय अनुमानति यासों जिनि प्रीति करै एही डर डरति । सूरदास प्रभु प्यारी.... की छवि निरखत न्यारेकै दृष्टि न इत उत टरति ॥ आसावरी ॥ नाम काह सुंदरी तुम्हारो क्यों मो. सों नहिं बोलति हो । हँसे हँसति चितए चित्तवति तुम तनु डोलै तनु डोलति हो ॥ परमचतुर में जानति तुमको मोपर भौंह मरोरति हौ । लटकति सुभग नासिका वेसरि पुनि पुनि वदन सकोरति हौ ।। अरुन अधर चित्त हरन चिबुक अति दामिनि दशन लजावतिहौ । ऐसे वचन मुखकी माधुरी काहे न हमहि सुनावतिहौ । कहौ वचन काकी तुम घरनी. काके मनको चोरतिहौ । सुनहु सूर सहजहि की| रिस मोसों लोचन जोरतिहौ ॥ सोरठ। कछु रिस कछु नागरि जिय धरकी। यह ॥ तो जोबन रूप गहीली संका मानति हरकी। यह विपरीत होतहै चाहत व्रज यह आयसुमानी। यह तौ गुणनि उजागार नागरि वैतो चतुर विनानीकर दर्पणप्रतिविव निहारति चकित भई सुकुमारी। सूरश्याम अंग निरखत वा छवि मग नागरि भोरीभारी।बिलावल ॥सुता विवस वृषभानुकी देखी गिरि धारी । लोचन एकटक देरही प्रतिविव निहारी ॥ अपनी छवि पर आपनो तन मन धन पारे! बार बार हाहा करै त्रिय नाम न सारै ।। बूझति ताको कौन तू को हैरी प्यारी। मैं देखी तो आज । ही सुंदरि गुणभारी ॥ त्रिभुवन में कोऊ नहीं तेरी उपमारी । यह कहि मुख मन सोचई भई सौति हमारी ॥ दृष्टि परै जिनि श्यामके तवही वश है। सोच करै पछिताति हैं. सगहा ।