दास प्रभुके जु विमुख भए बाधति कायरवार॥ कानरो ॥ आज अति राधा नारि बनी। प्रति प्रति अंग अनंग जाते रसवश त्रैलोक्य धनी॥ सोभित केश विचित्र भांति दुति शिखि शिखंड हरनी। रची मांग सभाग रागिनिधि कामधाम सरनी॥ अलक तिलक राजत अकलंकित मृगमद अंक रखनी। खुभी नजराव फूलदुति यों मनौं दुद्धर गति रजनी॥ भौंह कमान समान वान मनो हैं युग नैन अनी। नासा तिलक प्रसून विंवाधर अमल कमल वदनी॥ चिबुक मध्य मेचक रुचि राजति बिंद कुंद रदनी। कंबु कंठ विधि लोक विलोकत सुंदरि एक गनी॥ वाँह मृणाल लाल कर पल्लव मद गज गति गवनी। पतिमन मणि कंचन संपुट कुच रोम राजितठनी॥ नाभि भवँर त्रिवली तरंग गति पुलिन तुलिन ठटनी। कृपकटि प्रथु नितंब किंकिनि युत कदलिखंभ जघनी॥ रचि आभरण श्रृंगार अंग सजि रति पति ज्यों सजनी। जीते सूरश्याम गुण कारण मुख न मुरयो लजनी॥ बिलावल ॥ नँदनंदन वश कीन्हे राधा भवन गए चित नैक न लागत। श्यामा श्याम रूपमंदिर सुख अंतरते सो नेक न त्यागत॥ जा कारण वैकुंठ विसारत निज स्थल मनमें नहिं भावत।
राधा कान्ह देह धरि पुनि पुनि या सुखको वृंदावन आवत॥ बिछुरन मिलन विरहनर सुख नवतन दिन दिन प्रीति प्रकाशत। सूरश्याम श्यामा विलास रस निगम नेति नेति नित भासत॥ टोडी ॥ निगम नेति नेति गावतहैं जाको। राधा वश कीन्हाहै ताको॥ निशि बनधाम संग रहे दोऊ। एकै सँग नैक टरौं न कोऊ॥ प्रात गए घर घर रस पागे। अरस परस दोऊ अनुरागे॥ अपनी अपनी दशा विचारैं। भागवड़े कहि बारंबारै॥ प्यारी फेरि अभूषण साजति। बैठी रंगमहल में राजति॥ ज्यों चकोर चंद्राको आतुर। त्यों नागरि वश गिरिधर चातुर॥ आये उझकि झरोखे झांक्यो। करत श्रृंगार सुंदरी ताक्यो॥ जालरंध्र मग नैन लगायो। सूरश्याम मनको फलपायो॥ टोडी ॥ आधो मुख नीलांवर सों ढांकि विथुरी अलकैं सोहैं॥ एकदिशा मनो मकर चाँदिनी एक दिशा सघन बीजरी ऐसहार मनमोहैं॥ कबहुँक करपल्लवनसों केश निरुवारति पाछेंलैंडारति निकसत शशि संपूरण सन्मुख जब जोहैं। सूरदास प्रभु यह छबि न्यारे दुरि देखतहैं त्रिभुवनमें उपमा सो कोहै॥
॥ टोडी ॥ एक कर दर्पण एक कर अचरा कजराहि सँवारति ललना मुख कालिमदूरि करतिहै उलटि भँवर फिरि कमल परत। शीशफूल अति राजत नगनि जड्यो ताकी उपमा कहे शेष शीशमणि मनो वरत॥ करनफूल करननिहि सँवारति अलकैं निरवारति वंदन बिंदु लीला टकरत।
सूरश्याम दुरि देखत दर्पणको मुख एकटक ते पलकहु नटरत॥ गुंडमलार ॥ करति श्रृंगार उपभानु वारी। रहे एकटक जाल रंध्र मग हरिके श्याम मन भावती परमप्यारी॥ कबहुँ वैनी रचति फूलसों मिलै कच कबहुँ रचि मांग मोती सँवारै। कबहुँ राखति शीशफूल लटकाइके कबहुँ वंदन विंदु भाल भारै॥ कबहुँ केसरि आड रचति दर्पण हेरि कबहुँ श्रूनिरखि रिसकरि
सकोरे। निरखि अपनो रूप आपुही विवस भई सूर परछाँहको नैन जोरै॥ टोडी ॥ इह सुंदरी कहांते आई। बार बार प्रतिविंब निहारति नागरि मन मन रही लुभाई॥ करते मुकुर दूरि नहिं डारति हृदय माँझ कछु रिस उपजाई। देखै कहूं नैन भरि याको नागर सुंदर कुँवर कन्हाई॥ मेरी कहा चलै या आगे यहधौं आजु अरस परसते आई। सूरदास याको या ब्रजमें ऐसीको वैरनि जो ल्याई॥ हमीर ॥ मुकुर छांह निरखि देहकी दशा गँवाइ। बोली धौं कौने की आपुनही गमन कियो ऐसीको वैरनिहै या ब्रजमें माइ॥ विथकी अंग अंग निरखि वारबारहै परखि ललिता चंद्रावलि कह इतनी छबिपाइ। मनमें कछु कहन चहै देखतही ठटुकिरहै सूरश्याम निरखत दुरी
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/४०८
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३१५)
दशमस्कन्ध-१०