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दशमस्कन्ध १०


राधा सों पुनि पुनि कहति जु हमाह मिलावहु॥ हमीर ॥ सांवरे तनु कुसुंभी सारी सोहत है नीकीरी। मानो रतिपति सँवारि बनी रखनी जीकीरी॥ राधाते अतिहि सरस श्याम देखि पावैरी। ऐसी यह नारि और नारि मन चुरावैरी॥ घूंघट पट बदन ढांकि काहे इन राख्यो री। चितवहु मोतन कुमारि चंद्रावलि भाप्योरी॥ आपुहि पट रि कियो तरुणी बदन देखैरी। मनही मन सफल जानि जीवन जग लेखैरी। नैन नैन जोरति नहिं भावसो लजानेरी। सूरश्याम नागरि मुख चितवत मुसुकानेरी॥ विहागरो ॥ मथुरा में बस वास तुम्हारो। राधा ते उपकार भयो यह दुर्लभ दरशन भयो तुम्हारो॥ बार बार कर गहि गहि निरखत घूंघट वोट करो किन न्यारो। कबहुँक कर परसत कपोल छुइ चुटकि लेत ह्यां हमहि निहारो॥ कछु मैं हूं पहिचानति तुमको तुमहि मिलाऊं॥ नंददुलारो । काहेको तुम सकुचति हौ जी कहौ काह है नाम तुम्हारो॥ ऐसी सखी मिली तोहिं राधा तौ हमको काहे न विसारो। सूरदास दंपति मन जान्यो यासे कैसे होत उवारो॥ रामकली ॥ राधा सखी मिली मन भाई। जबते इनसों नेह लगायो बहुत भई चतुराई॥ और भई इतने तुमको सखी गृहजन सों निठुराई। काहूके मनमें नहिं आनति हमहुँ सबन बिसराई॥ तुमहौ कुशल कुशल है एऊ आपु स्वारथी माई। सूर परस्पर दंपति आतुर चतुर सखी लखि पाई॥ रामकली ॥ इह सखि अबलौं कहां दुराई। राति दिवस हम कबहुँ न देखी अब जु कहाँ ते आई॥ त्रिभुवनकी सोभा सब गुणनिधि है विधि एक उपाई। विद्यमान वृषभानु नंदिनी सहचारि सब सुखदाई॥ अपने मन तकि तकि तनु तोलति विय जन सुंदरताई। दुसर रूपकी राशि राधिका कहौ न साध पुराई॥ राचिरही रस सुरति सूर दोउ निरखी नैंन निकाई। चीन्हे हौ चले जाहु कुंज गृह छांडि देहु चतुराई॥ रामकली ॥ ऐसी कुँवरि कहां तुम पाई। राधा हूंने नख शिस सुंदरि अबलों कहां दुराई॥ काकी नारि कौनकी बेटी कोन गाउँते आई। देखी सनी न ब्रज वृंदावन सुधि वुधि रहतिपराई॥ धन्य सुहाग भागयाको यह युवतिनके मनभाई। सूरदास प्रभु हरषि मिले हँसि ले उर कंट लगाई॥ गुंडमलार ॥ नँद नंदन हँसे नागरी मुखचितै हरषि चंद्रावलि कंठ लगाई। वामभुज रवनि दक्षिण भुजा सखी पर चले वन घाम सुन्न कहि नजाई॥ मनो विवदामिनी बीच नव घन सुभग देखि छबि कामरति सहित लाजै। किधौं कंचनलता विच तमाल तरुभामिनी बिच गिरिधर विराजे। गए गृह कुंज अलि गुंज सुमनन पुंज देखि आनंदभरे सूर स्वामी। राधिका रवन युवती रवन मन हरन निरखि छबि होत मन काम कामी॥ राजबिखटी ॥ बसेरी हैं री नयननिमें षटइंदु। नँदनंदन वृषभानु नंदिनी सखी सहित सोभित जगबंदु। द्वादशही पतंग शशि सौ वीस षट फणि चौबीस धातु चतुरंग छंदु॥ द्वादशही पकु विवसौं बानवै वज्रकन षट कमलनिमुसिक्यात मंदु॥ द्वादशही मृणाल कदली खंभ द्वादश द्वादश ते मातु लैहि गिनंदु॥ द्वादशही सायक द्वादश चाप चपलई खग व्याली समाधुरी फंदु। चौबिसही चतुप्पद शोभा अति कीनी मानौं चलत चुवतकर भामकरंदु॥ नील गौर दामिनि बिच पीतघन षोडश राजत अनूपम छबि श्रीगोकुल चंदु। साठि जलजही अरु द्वादश सरवर अंगही अंग सर सरस कंटु। सूरश्याम पर तनु मनुहिवारते ललिता इति देखि भयो आनंदु॥ केदारो ॥ कुंज सुहावनो भवन बनि ठनि बैठे राधा वरन। रवन वरन कुसुम प्रफुल्लित शशिकी किरनि जगमगात तैसोई बहै त्रिविध पवन॥ आलिंगन पिकमंगल गावत ध्वनि सुनि मुनि मनहि भावत देखत दंपति विवस अयन। सूरदास प्रभु पिय प्यारी दोउ राजत साजत सखी वारति रति पति

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