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सूरसागर।


मुकुर लै भावती छबि निहारै॥ भामिनी अंग वह निरखि नटवर भेष हँसतही हँसत सब मेटि डारे॥ सहज अपनो रूप धरो मन भावती और भूषण तुरत अंगधारे। त्रियाको रूप धरि संग राधा कुँवरि जात ब्रज खोरि नहिं लखत कोऊ। सूर स्वामी स्वामिनी बने एकसे कोउ न पटतर अरस परस दोऊ॥ गौरी ॥ नँदनंदन त्रिय छबि तनु काछे। मनो गोरी साँवरी नारि दोउ जात सहज में आछे॥ श्याम अंग कुसुँभीनई सारी फलगुंजाकी भांति। इत नागरी नीलांबर पहिरे जनु दामिनि घन कांति॥ आतुर चले जात बनधामहि अतिमन हरष बढ़ाए। सूरश्याम वा छबिको नागरि निरखति नैन चुराए॥ कान्हरो ॥ मनही मन रीझतिहै राधा बार बार पिय रूप निहारै। निरखि भाल वेंदी सेंदुरकी वा छबि पर तन मन धन वारौ॥ यह मन कहति सखी जिन देखे बूझे पर कहा कैहौ। तिंहू भुवन सोभा सुखकी निधि कैसे उनहि दुरैहो॥ पग जेहरि विछिअनकी झमकनि चलत परस्पर बाजत। सूरश्याम श्यामा सुख जोरी मणि कंचन छबि लाजत॥ कल्याण ॥ श्यामा श्याम कुंजवन आवत। भुज भुज कंठ परस्पर दीन्हें यह छबि उनहीं पावत॥ इतते चंद्रावली जात ब्रज उतते ए दोउ आए। दूरिहिते चितवत उनही तन इकटक नैन लगाए॥ एक राधिका दूसरिकोहै याको नहिं पहिचानौं। ब्रज वृषभानु पुरा युवतिनको इक इक करि मैं जानौं॥ यह आई कहुँ और गाँवते छबि सांवरी सलोनी। सूर आज इह नई बतानी एक अंग न विलोकी॥ ॥ सोरठ ॥ राधा सकुचि श्याम मुख हेरति। चंद्रावली देखिकै आवति ब्रजहीको पियफेरति॥ जाहु जाहु मुखते कहि भाषति करते कर नहिं छूटति। उतहि सखी आवत सकुचानी इतहि श्याम सुख लूटति॥ दुख सुख हरष कछू नहिं जानति श्याम महारस माती। सूर उतहि चंद्रावलि इकटक उनहोंके रँगराती॥ गौरी ॥ यह वृषभानु सुता वह कोहै। याकी सरि युवती कोउ नाहीं यह त्रिभुवन मनमो है। अतिआतुर देखनको आवति निकट जाइ पहिचानो। ब्रजमें रहति किधौं कहुँ औरै बूझते तब जानो। यह मोहनी कहांते आई परम सलोनी नारि। सूरश्याम देखत मुसुकानी करी चतुरई भारि॥ गौरी ॥ इनते निधरक और नकोइ। कैसी बुद्धि रचीहै नोखी देखी सुनी नहोइ॥ इह राधा सों हाथ विधाता बुद्धि चतुरई ठानी। कैसे श्याम चुराइ चली लै अपने भूषण ठानी॥ और कहा इतिको पहिचाने मोपै लखे न जात। सूरश्याम चंद्रावलि जाने मनहीं मन मुसुकात॥ ॥ कानरो ॥ सकुच छांडि अब इनहि जनाऊं । एतौ चले आपने काजहि मैं काहेन समझाऊं॥ मनहीं मनमें जीति ज़ाहिंगे जानिं बूझि निदराऊं। यह चतुरई काछिके आए सो अब प्रकट देखाऊं॥ बड़े गुणज्ञ कहावत दोऊ इनको लाज लजाऊं। सुरश्याम राधाकी करनी महिमा प्रगट सुनाऊ॥ सारंग ॥ कहि राधा ये कोहैरी। अति सुंदरि साँवरी सलोनी त्रिभुवन जन मन मोहैरी॥ और नारि इनकी सरि नाहीं कहौ न हम तन जोहैरी। काकी सुता बधू है काकी काकी युवती धौहैरी॥ जैसी तुम तैसीहैं एऊ भली बनी तुम सोहैरी। सुनहु सूर अति चतुर राधिका एई चतुर नीकी गौहैरी॥ ईमन ॥ मथुरा ते ये आई है। कछु सम्बन्ध हमारा इनसों ताते इनहि बुलाई है॥ ललिता संग गई दधि बेचन उनही इनहि चिन्हाई है। उहै सनेह जानिरी सजनी भवन आज हम आई है॥ तबहीं की पहिचान हमारी ऐसी सहज सुभाई है। सुर मोहिं देखन इहां आवत आपु संग उठि धाई है॥ सोरठ ॥ इनको ब्रजही क्यों न बुलावहु। की वृषभानु पुराकी गोकुल निकटहि आनि वसावहु॥ वोऊ नवल नवल तुमहूं हौ मोहन को दोउ भावहु। मोको देखि कियो अति घूंघट काहे न लाज छुड़ावहु॥ यह अचरज देख्यो नहिं कबहूं युवतिहि युवति दुरावहु। सूरसखी