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दशमस्कन्ध-१० (३११) पहिरत श्याम भूषण नारि । सूर प्रभु करि मानु बैठे त्रिय करति मनुहारि ॥ विलावल ।। कहति नागरी श्याम सों तजौ मानु हठीली । हमते चूक कहा परी त्रिय गर्व गहीली ॥ हँसतहि में तुम रिस कियो कहा प्रकृति तुम्हारी । वार वार कर धरतिह कहि कहि सुकुमारी ॥ वृथा मान नाह कीजिये शिर.चरणन धारति । आनन आनन जोरिकै पिय मुखहि निहारति ॥ निठुर भईहौ लाड़िली करके हम ठाढे। तुम हम पर रिसि करतही हम, तुव चाढे ॥ श्याम कियो हठ जानिक इक चरित बनाऊं। सुनहु सूर प्यारी हृदय रस विरह उपाऊं ॥ बिलावल ॥ लाल निठुर है वैठि रहे। प्यारी हाहा करति न मानत पुनि पुनि चरण गहे॥ नहिं बोलत नाहि चितवत मुखतन धरणी नखन करोवत । आपु हँसति पुनि पुनि उर लागत चकित होत मुख जोवत ॥कहा करत एवोलत नाहीं पिय यह खेल मिटावहु । सूरश्याम मुख कोटि चंद्रछवि हसिक मोहि देखावह ॥ धनाश्री ॥ नागरि हँसति हृदय डरभारी । कबहुँ अंक भरि लेति उरज विच कबहुँ कर ति मनुहारी ॥ मान करत नीके नहि लागै दूरि करौ यह ख्याल । नेक नहीं चितवत राधा तन निठुर भए नंदलाल ॥ शीश धरति चरणनि लै पुनि पुनि त्रियको रूप निहारत । सूरदास प्रभु मान धरयो दृढ़ धरणी नखन विदारत ॥ गुंड निरखि त्रियरूप पिय चकित भारी। किधौं वै पुरु प मैं नारिकी वै नारि माहिहौं पुरुष तनु सुधि विसारी॥ आप तन चितै शिर मुकुट कुंडल श्रव न अधर मुरली माल वन विराजै । उतहि प्रियरूप शिर मांग वेनी सुभगभाल वेदी विंद महाछाज। नागरी हठ तजौ कृपाकार मोहिं भजौ परी कह चूक सो कही प्यारी । सूरप्रभु नागरी रस विरह मगन भई देखि छवि हँसत गिरिराज धारी॥ धनाश्री ॥ निरखत पिय प्यारी अंग अंग विरह सोभा। कबहूँ पियचरण परति कबहूँ भुज अंक भरात कबहूँ जिय डरति वचन मुनिवकी लोभा। कबहूँ कहति पियसों पिय कबहुँ कहति प्यारी हो हाहा कोर पाँइ परति विकल भई वाला । कबहुँ उठति कबहुँ बैठ पाछे द्वै रहति कबहूं आगे बै वदन हेरि परी विरह ज्वाला ॥ काहे तुम कियो मान बोले विन जात प्रान दंपति है संग दशा ऐसी उपजाई । रीझे प्रिय सूरश्याम अंकम भार लई वाम विरह बंद मेटि हरप हृदय उपजाई ॥ धनाश्री ॥ प्रिया पिय लीन्ही अंकम लाइ । खेलतमें तुम विरह बढ़ायो गई कहा वितताइ ॥ तुमही कह्यो मान करिवेको आपुहि बुद्धि . उपाइ । काहे विवस भई विन कारण ऐसी गई डराइ ॥ सुन प्यारी हम भाव बतायो अंतर गए जनाइ। वारंवार अलिंगन दीन्हो अवहिं रही मुरझाइ ॥ सींची कनकलता सूरज प्रभु अमृत वचन सुनाइ । अति सुखदै दुखको विसरायोराधारवन कन्हाइ ॥ गुंडमलार ॥ श्याम तनु पिया भूपण विराजै । कनक मणि मुकुट कुंडल श्रवन वनमाल अधर मुरली धरे नारि छाजै॥ निरखि छवि परस्पर रझेि दोउ नारि वर गयो तजि विरह उर प्रेम पागे। सूरप्रभु नागरी हँसति मन मन रसति क्सत मन श्यामके बड़े भागे.॥ नट ॥ नागरि भूषण श्याम बनावत । श्रीनागर नागरि अँग सोभा किवो निरखि मन भावत ॥ श्यामा कनक लकुट कर लीन्हे पीतांवर उर धारे । उत गिरिधर नीलांवर सारी बूंघट वोट निहारे ॥ वचन परस्पर कोकिल वाणी श्याम नारि पतिराधा। सूर स्वरूप नारि पति काछे पति नारी तनु साधा ॥ नट ॥ नीके श्याम मान तुम धारयो । तुम बैठे दृढमान ठानि मैं देख्यो मान तुम्हारो। यह मन साथ बहुतही मेरे तुम विनु कौन निवारै । नागार पियतन अपनी सोभा वारहि वार निहाविनी मांग भाल वेदी छवि नैननि अंजन रंगासूर निराखि पिय बूंघट की छवि पुलकनमावति अंग॥ धनाश्री ॥ कुंजवन गमन दंपति विचारै नारिको वेसकरि नारिको मनहि हरि