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दशमस्कन्ध-१०


प्रिय राधिका रसकिनी कोक गुन सहित सुख लूटि लीन्हों॥ नट ॥ किसोरी अंग अंग भेटी श्यामहि। कृष्णतमाल तरल भुज शाखा लटकि मिली जैसे दामहि॥ अचरज एक लता गिरि उपजै सोउ दीने करुणामहि। कछुक श्यामता साँवल गिरिकी छायो कनक अगामहि गिरिवर धरन सुरति रतिनायक रति जीते संग्रामहि। सूरकहै ये उभय सुभट विच क्यों जु बसै रिपु कामहि॥ नट ॥ रसना युगलरस निधि बोलि। कनक बेलि तमाल अरुझी सुभुज बंधन खोलि॥ भृंग यूथ सुधा किरनि मनो धन में आवत जात। सुरसरी पर तरनि तनया उमँगि तट न समात॥ कोक नद पर तरनि तांडव मीन खंजन संग। करति लाज शिखर मिलि युगम संग मरंग॥ जलद ते तारा गिरत मनो परत पय निधि माहिं। युग भुजंग प्रसन्न मुख ह्वै कनक घट लपटाहिं॥ कनक संपुट कोकिला रव बिवस ह्वै दे दान। विकच कंज अनारलगि अधर लसि करत पयपान॥ दामिनी थिर घन घटाचर कबहुँ ह्वै एहि भांति। कबहुँ दिन उद्योत कबहूं होत अतिकहराति॥ सिंह मध्य सनाह मणि गण सरससर के तीर। कमल मनो बिननाल उलटै कछुकतीक्षननीर॥ हंस सारस शिखर चढि दोउ करत नाना नाद। मकर निजपद निकट विहरत मिलन अति अहलाद॥ प्रेम हित करि क्षीरसागर भई मनसा एक। श्याम मणिके अंग चंदन अमीके अविषेक॥ सूरदास सखी सभा मिलि करत बुद्धि विचार। समय सोभा लगि रही मनो सूमको संसार॥ रामकली ॥ सोभा सुभग आनन वोर। त्रासते तनु त्रसित तिरछे चितै देत अकोर॥ निरखि सन्मुख कियो चाहत वदन विधुकी जोर। तुला विचलोकेशतौले गरुअ आनन गोर॥ दरशपति रुचि मुदित मनसिज चपल दृग दृग कोर। कोस क्रीडत मीन मानों नीर नीरज भोर॥ श्यामसुंदर नैन युग बर झलक कज्जल कोर। सुधा सर संकेत मानो कूप दानव वोर॥ श्रवन माण ताटंक मंजुल कुटिल कुंतल छोर। मकर संकट कामवापी अलक फंदनिडोर॥ चिकुर अध नव मोति मंडल तरल लट तृण तोर। जनु विध्वंसित ब्याल बालक अमी की झकझोर। श्रमस्वेद सीकरगुंड मंडित रूप अंबुज कोर। उमँगि ईपद यो श्रम तज्यो पीयूष कुंभ हिलोर॥ हँसत दशननि चमक विज्जुल लसित कठिन कठोर। मुदित मधुपर विंदगन मकरंद मध्यन थोर॥ निरखि सोभा समर लज्जित इंदु भयो भ्रम भोर। सूर धन्य सुनव किसोरी धन्य नंद किसोर॥ बिलावल ॥ धन्य कान्ह धनि राधा गोरी। धनि वह भाग सुहाग धन्य वह धन्य नवल नवला नवजोरी॥ धन्य यह मिलनि धन्य यह बैठनि धन्य अनुराग नहीं रुचि थोरी। धनि यह अरस परस छबि लूटनि महाचतुर मुख भोरे भोरी॥ प्यारी अंग अंग अवलोकति पिय अवलोकत लगत ठगोरी। सूरदास प्रभु रीझि थकित भए नागरि पर डारत तृण तोरी॥ धनाश्री ॥ नागरि छबि पर रीझत श्याम। कबहुँक वारतहैं पीतांचर कबहुँक वारत मुकुतादाम॥ कबहुँक वारतहैं कर मुरली कबहुँक वारत मोहननाम। निरखिरूप मुख अंत लहत नहिं तनु मनुवारत पूरणकाम॥ वारंवार सिहात सूर प्रभु देखि देखि राधासी वाम। इनको पलकओट नहिं करिहौं मन इह कहत वासरहु याम॥ बिलावल ॥ श्याम निरखि प्यारी अंग अंग। सकुचि रहत मुखतन नहिं चितवत जहि वश रहत अनंत अनंत॥ चपलनैन दीरघ अनियारे हाव भाव नाना मतिभंग। वारों मीन कोटि अंबुज गण खंजन वारत कोटि कुरंग॥ लोचन नहिं ठहरात श्यामके कबहुँ अंग नैना मुख रंग। सूरदास प्रभुयों प्यारी वश ज्यों वशडोर फिरत सँग चंग॥ टोडी ॥ श्याम भए राधावश ऐसे। चातक स्वाति चकोर रहत ज्यों चक्रवाक रवि जैसे॥ नाद कुरंग मीन जलकी गति