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(३०८) सूरसागर । इकते इक अधिकारी ॥ ललिता संग सखिन सोभा सखि देख्यो छवि पियप्यारी । सुनह सूर जो अग्नि होम घृत ताहूते यह न्यारी ॥ धनाश्री ॥ देखि सखी राधा अकुलानी। ऐसे अंग अंग छवि लूटत मिलेहु श्यामको नहीं पत्यानी ॥ जैसे तृषावंत जल अचवत वहतौ पुनि ठहरात । यह आतुर छवि लै उरधारति नैक नहीं त्रिपितात ॥ जो चकोर इकटक निशि चितवत याकी सरि सोउ नाहीं । ज्यों घृत होम वह्निकी महिमा सूर प्रगट या माहीं ।। केदारो ॥ यद्यपि राधिका हरि संग । हावभाव कटाक्ष लोचन करत नानारंग ।। हृदय व्याकुल धीर नाही वदन कमल विलास । तृषामें जल नाम सुनि ज्यों अधिक अधिकाहि प्यास ॥श्यामरूप अपार इत उत लोभ पुट विस्तार। सूरमिलत नहिं लहत कोऊ दुहुँनि बल अधिकार ॥ केदारो ॥ राधेहि मिलेहु प्रतीत न आवति।यद्यपि नाथ विधु वदन विलोकति दरशनको सुखपावति ॥ भार भरि लोचन रूप परमनिधि उरमें आनि दुरावति । विरह विकल मति दृष्टि दुहँदिशि सचिसरधा ज्यों धावति ॥ चितवति चकित रहति चित अंतर नैन निमेष न लावति । सपनो अहि कि सत्य ईश इह वृद्धि वितक वनावति ॥ कबहुँक करत विचार कौनहो को हरि केहि यह भावति । सूर प्रेमकी वात अटपटी मनतरंग उपजावति ॥ रामकली ॥ देखड्ड अनदेखेसे लागत । यद्यपि करति रंग भरे एकहि इकटक रहे निमिष नहिं त्यागत ॥ इत रुचि दृष्टि मनोज महासुख उत सोभा गुण अमित अनागत । वाढयों वैर कर्ण अर्जुन ज्यों दुइ महँ एक भूलि नहिं भागत ॥ उत सन्मुखसी सावधान सजि इत सना ह अंग अंग अनुरागत । ऐसे सूर सुभट एलोचन अधिकौ अधिक श्याम सुख मांगत ॥ कान्हरो ॥ देखियत दोउ अहंकार परे । उत हरि रूप नैन याके इत मानहु सुभट अरे ॥ रुचिर सुदृष्टि मनोज महामुख इन इत एक करे। उन उत भूपण भेद विविध राचि अंग अंग धनुष धरे ।। एअति रति रण रोष नमानत निमिष निखंग झरे । बाहु व्यथहि न वदत पुलक रुह सब अंग सरस चरे॥ वैश्री ए अनुराग सूर सजि छिनु २ वढत खरे। मानहु उमॅगि चल्यो चाहतहै सारँग सुधाभरे ॥ विहागरो ॥ नखशिखते अंग अंग रूप छवि देखि देखि नैना न अचाने । निशि अरु दिन एक टकही राखे पलक लगाइ न जाने ॥ छवितरंग अगनित सरिताए जलनिधि लोचन तृप्ति न माने। सूरदास प्रभुकी सोभाको अति लालिची रहे ललचाने ॥ विभास । ललिता संग सखिनको लीन्हें। दंपति सुख देखत अति भावत एकटक लोचन दीन्हें।।प्यारी श्याम अंग की सोभा निदरे देख्योई चाहात । उत नागर नागरि नैननिको निदार रूप अवगाहति ।। उत उदार सोभाकी सीवा इत लोभहि नहिं पार । सूरश्याम अंग अंगकी सोभा निरखत वारंवार ॥ गुंडमलार ॥ निदरि अंग छवि लेति राधा । यह कहति कितिक सोभा करेंगे श्याम मेटिहौं आज मन सबै साधा ॥ उतहि. हरि रूपकी राशि नहिं पार कहुँ दुहुनि मन परस्पर होड कीन्हों । इतहि लुब्ध वै उतहि उदार चित्त दुहुँ नवल अंत नहीं परत चीन्हो ॥जुरे रणवीर ज्यों एकते एक सरस मुरत कोउ नहीं दोउ रूप भारी । सूर स्वामी स्वामिनी राधिका सरस निरस कोउ नहीं लाख लई नारी ॥ मारू ॥ रुंधे रति संग्राम खेत नीके । एकते एक रणवीर जोधा प्रवल मुरत नहिं नेक अति सवल जीके ॥ भी ह कोदंड शर नैन जोधानु की काम छूटनि मानो कटाक्षनि निहारै । हँसनि दुज चमक करिवर नि लोहेन झकल नखन छत पात नेजा सँभारपीतपट डारि कंचुकी मोचित करानि कवच सन्ना हए छुटे तनते । भुजा भुज धरत मनो द्विरद शंडिन लरत उर उरनि भिरे दोउ जुरे मनते ।। लटकि लपटानि मानो सुभट लरि परे खेत रति सेज चुंचिताम कीन्हों। सूर प्रभु रसिक।