॥ सांकारण ॥ अरी मोहिं पिउ भावै को ऐसी जो आनि मिलावै। चौदह विद्या प्रवीन अतिही सुंदर नवीन बहुनायक कौन मनावै॥ नेकदृष्टि भरि चितवे मो विरहिनिको माई काम द्वंद्व विरह तपनि तनुते बुझावै। सूरदास प्रभु मोको करहिं कृपा अब नित प्रति विरह जरावै॥७१॥ बिलावल ॥ धीरज करिरी नागरी अब श्यामहि ल्याऊं। अति व्याकुल जिनि होहिरी सुख अबहिं कराऊं॥ देखि दशा सहि नहिं सकी मनही अकुलानी। मैं राधाकी प्रियसखी यह कहि पछितानी॥ झुरि झुरि पियरी भईहै यहतौ सुकुमारी। ऐसी चूक परी है मोपै कहा करौं गिरिधारी॥ प्यारी को मुख धोइकै पटपोंछि सँवारयो। तरक बात बहुतै कही कछु सुधि नसँभाश्यो॥ सावधान कारिकै गई ल्याऊं गिरिधरको। सुर तहां आतुर गई पाये हरि वरको॥७२॥ टोडी ॥ ललिता मुख चितवत मुसुकाने। आपु हँसी पिय मुख अवलोकत दुहुँनि मनहिं मन जाने॥ आति आतुर धाई कहां आई काहे वदन झुराये। बूझत है पुनि पुनि नँदनंदन चितवत नैन चुराये॥ तब बोली वह चतुर नागरी अचरज कथा सुनाऊं। सूरश्याम जो चलौ तुरतही नैननि जाइ दिखाऊं॥७३॥ सारंग ॥ अद्भुत एक अनूपमबाग। युगल कमल पर गज क्रीडतहै तापर सिंह करत अनुराग॥ हरि पर सरवर सरपर गिरिवर गिरिपर फूले कंज पराग। रुचिर कपोत बसे ता ऊपर ता ऊपर अमृत फल लाग॥ फल पर पुहुप पुहुप पर पल्लव तापर शुक पिक मृग मद काग।
खंजन धनुष चंद्रमा ऊपर ता ऊपर इक मणिधर नाग॥ अंग अंग प्रति और और छबि उपमा ताके करत न त्याग। सूरदास प्रभु पिवहु सुधारस मानों अधरनिके बड़भाग॥ रामकली ॥ पद्मनिसा रंग एक मझारि। आपहि सारंग नाम कहावै सारंग बरनी वारि॥ तामें एक छबीलो सारंग अर्ध सारंग उनहारि। अर्ध सारंग पार सकलई सारंग अधसारंग विचारि॥ तामहि सारंग सुत सोभित है ठाठी सारंग संभारि। सूरदास प्रभु तुभहूं सारंग बनी छबीली नारि॥ रामकली ॥ बिराजत अंग अंग इति वात। अपने कर करिधरे विधाता षट खग नव जल जात॥ द्वै पतंग शशि वीस एक फनि चारि विविध रंग धात। द्वै पिक बिंब वतीस बज्रकन एक जलज पर थात॥ इक सायक इक चाप चपल अति चिनुक में चित्त बिकात। दुइ मृणाल मातुल ऊभे द्वै कदली खंभ बिन पात॥ इक केहरि इक हंस गुप्त रहै तिनहि लग्यो यह गात। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलनको अति आतर अकुलात॥ सारंग ॥ आज मैं देखी एक वाम नईसी। ठाढी हुती अंगना द्वारे विधना रची कीधौं मदन मईसी॥ हम तन चितै सकुच अंचल दै वारिज वदन परिवारि वईसी। मानौ द्वै ढंग चले हैं दृगनिलै ललित वलित हरि मनहि नईसी॥ जनु पावस ते निकसि दामिनी नेक दमकि दुरि वोट लईसी। भोजन भवन कछू नहिं भावत पलकन मानो करत खईसी॥ यह मूरति कबहूं नहिं देखी मेरी अँखियन कछु भूल भईसी। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन को मन
मोहन मोहनी अचईसी॥ सारंग ॥ वरणों श्रीवृषभानु कुमारी। चितदै सुनहु श्याम सुंदर छबि रतिनाहीं अनुहारी॥ प्रथमाहि सुभग श्याम वेनी की सोभा कहौं विचारी। मानों फनिग रह्यो पीवन को शशि सुख सुधा निहारी॥ कहिये कहा शीश सेंदुरको कितौ रही पचिहारी। मानों अरुन किरनि दिनकरकी पसरी तिमिर विदारी॥ भ्रुकुटी विकट निकट नैननिके राजत अति वरनारि। मनहुँ मदन जगजीति जेर करि राख्यो धनुष उतारि॥ ताबिच बनी आड़केसरिकी दीन्ही सखिन सँवारि। मानों वंधि इंदु मंडलमें रूपसुधाकी पारि॥
चपल नैन नासा विच सोभा अधर सुरंग सुठार। मनों मध्य खंजन शुक बैठ्यो लुबध्यो बिंव विचार॥
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३९९
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(३०६)
सूरसागर।