हम कहाँ देखावें। तुमते न्यारे रहत कबहुँ वै नैक नहीं विसरावें॥ एक जीव देही द्वै राची यह कहि कहि जु सुनावैं। उनकी पटतर तुमको दीजै तुम पटतरवे पावैं॥ अमृत कहा अनृतगुण प्रगटे सो हम कहा बतावैं। सूरदास गूंगेको गुर ज्यों बूझति कहा बुझावैं॥३०॥ टोडी ॥ सुनि राधा यह कहा विचारै। वे तेरे रंग तू उनके रंग अपनो मुख काहे न निहारै॥ जो देखे तौ
छांह आपनी श्याम हृदय ह्यां छाया। ऐसी दशा नंदनंदनकी तुम दोउ निर्मल काया॥ नीलांबर श्यामलतनुकी छबि तुअछबि पीत सुवास। धन भीतर दामिनी प्रकाशतदामिनि धन चहुँपास। सुनरी सखी बिलछ कहौं तोसों चाहति हरिको रूप। सूर सुनहु तुम दोउ समजोरी एक एक रूप अनूप॥३१॥ धनाश्री ॥ सुनि ललिता चंद्रावलि बात। मोसों श्याम नेह मानतहैं तुमसों कहति लजात॥ तुमतौ सदा रहति हरि सँगही भेद कहो यह मोहि। हाहाकरति पाँइहों लागति शपथहै मेरी तोहिं॥ काहेको इतरात सखीरी तोते प्यारी कौन। सुरश्याम तेरे वश ऐसे ज्यों पर्वतवश पौन॥३२॥ नट ॥ पिय तेरे वश योंरी माई। ज्यों संगही संग छाँह देह वश प्रेम कह्यो नहिंजाई॥ ज्यों चकोर वश शरद चंद्रके चक्रवाक वशभान। जैसे मधुकर कमलकोश वश त्यों वश श्याम सुजान॥ ज्यों चातक वश स्वाति बूंदके तनके वश ज्यों जीय। सूरदास प्रभु अतिवश तेरे समझि देखिधोंहीय॥३३॥ धनाश्री ॥ तूरी छांह किये हरि राखति। अपने मन तू जानति नीके
मुख मोसों यह भाषति॥ अतिवश रहत कान्हरी तोको मुकुर हाथलै देखो। तैसीये मन मोहनकी गति उहै भाव मन लेखो॥ तुमहौ वाम अंग दक्षिण वै ऐसे करि एक देह। सूर मीन मधुकर चकोरको इतनो नहीं सनेह॥३४॥ देसाष ॥ नँदनंदन वशतरेरी। सुनि राधिका परम वड़भागिनि अनुरागिनि हरिकेरीरी॥ जादिन ते तोहिं सरिक मिले हरि धेनु दुहावन आई रीता दिनते वश भये कन्हाई कहा ठगोरी लाई री॥ अब तू कहति कहा मो आगे बातन मोहिं भुलावै री। सूरदास ललिताकी बाणी सुनि सुनि हरष बढ़ावैरी॥३५॥
टोडी ॥ ललिता मुख सुनि सुनि वै बानी। मैं ऐसी जिय में यह आनी॥ और नही मोसरि कोउ ब्रजकी। हो राधा आधा अँग हरिकी॥अपनेही वश पियको करिहौ। कहूं जात देखों तब लरिहौ॥ घर घर सबै गई ब्रजनारी। यहि अंतर आये गिरिधारी॥ हरि अंतर्यामी अविनाशी। जानि राधिका गर्व उदासी॥ सूरश्याम राधा तन हेरयो। नागरि देखतही मुख फेरयो॥३६॥ सारंग ॥ वरज्यो नहिं मानत उझकत फिरत हौ कान्ह घर घर। तुम मिसही मिस देखत फिरत युवतिनके बदन कौन कौनके घर॥ कोउ अपने घर काम काज जैसे तैसे तुम आवत हौ दर दर। सूरदास प्रभु
अतिहि अचगरी देत डोलत नेक नहीं जियमें डर॥३७॥ बिलावल ॥ यह जान्यो जिय राधिका द्वारे हरि लागे। गर्व कियो जिय प्रेम को ऐसे अनुरागे॥ बैठि रही अभिमान सों यह ठौर न पायो हृदय श्याम सुखधाम में अभिमान बसायो। राधा के यह जानि कै आपुन पछिताहीं। जहां गर्व अभिमान है तहां गोविंद नाहीं॥ तहां नेकहुँ नहिं रहै नहीं दरशन दीन्हों। सूरश्याम अंतर भये जब गर्वहि चीन्हों॥३८॥ धनाश्री ॥ राधा चकित भई मन माहीं। अबहीं श्याम द्वार ह्वै झांके ह्यां आये क्यों नाहीं॥ आपुन आइ तहां जो देखे मिले न नंदकुमार। आवत हे फिरि गये श्याम घन अति ही भयो विचार॥ सूनै भवन अकेली मैंही नीके उझकि निहारयो। मोते चूक परी मैं जानी ताते मोहिं विसारयो। एक अभिमान हृदय करि वैठी एते पर झहरानी। सूरदास प्रभु गये द्वार को तब व्याकुल पछितानी॥३९॥ सारंग ॥ मैं अपने जिय गर्व कियो। वै अंतर्यामी सब जानत देख
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सूरसागर।