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(२९८) . .. सूरसागर। . पान वचन सल्लाह कवचदै जोरो सूर अपार।।९०॥कान्हरो ॥ प्यारी अंग श्रृंगार कियोः। वेनी रची सुभग कर अपने टीका भाल दियो । मोतियन मांग सँवारि प्रथमही केसार आड सँवारि । लोच. न आँजि श्रवन तरवनं छवि कोकवि कहै निवारि ॥ नासानथं अतिही छवि राजत वीरा अधरनि रंग। नवसत साजि चीर चोली वनि सूर मिलत हरि संग।।९१॥कल्याणानागरि नागर पंथ निहारैः।। उदै वाल शशि अस्तंभयो अब जिय जिय इहै विचारै ॥ कीधौं अवहीं आवत हैं की आवन नहिं पैहैं । मात पिताकी त्रास उतहि इत मेरे घरहि डरैहैं। अँग श्रृंगार श्यामहित कीन्हें वृथा होन ये चाहत । सूरश्याम आकी नाही मन मन इह अवगाहत ॥ ९२ ॥ फान्हरो ॥ श्यामा निशिमें सरस बनीरी। मृगरिपुलंक तासु रिपु गज ताऊपर मधु केलि ठनीरी। कीर कपोत मधुप पिक तवरिपुसत रेख बनीरी 1 उडपति विव धरे अति सोभा सुखवाला जोरिचिनीरी ।। कनक खंभ रचि नवसत साजे जलधरै भख जब श्रवन सुनीरी । करगहि सत्र सांत परिसारंग दंपतिहीकी सुरति ठनीरी॥ उमापतिहि रिपुको ललचानी बनरिपु तनमे अधिक जरीरी। सूरदास प्रभु मिलो. राधिका तन मन शीतल रोमभरीरी । विहागरो ॥ राधा रचि रचि सेज सँवारति । तापर सुमन सुगंध विछावति वारंवार निहारति ॥ भवन गवन करिहैं हरि मेरे हरष दुखहि निरुवारति । आवे कबहुँ अचानकही जो सुभग पावडे डारति ॥ यहि अभिलाषहि में हरि प्रगटे पुरुष भवन सकु चानी। वह सुख श्रीराधा माधोको सूर उरहि यह जानी ॥ ९३॥ कहा कहौं सुख कह्यौ न जाइ । वह अभिलाष श्यामकी आवनि दुहुँ उर आनंद नहीं समाइ ॥ द्वादशकान्ह द्वादशी आपुन वह निशिव हरि राधा योग। वह रसकी झझकनि वह महिमा वह मुसुकनि वैसो संयोग । वैहित वोल. परस्पर दोऊ ठटकत कहत प्रेम पहिचानि । सूरश्याम करवाम भुजाधार उछंगलई वह मुख पहिचानि ॥ ९४ ॥ कान्हरो ॥ श्याम सकुच प्यारी उर जानी । उछंगि लई वामः भुज भरिकै वार वार कहिवानी ॥निरखति सकुच वदन हरिप्यारी प्रेमसहित दोऊ ज्ञानी । करत कहा पिय अति उताइली मैं कहुँ जात परानी। कुटिल कटाक्ष बंक करि भ्रुकुटी आननमुरि मुसकानी।सूरझ्याम गि रिधर रतिनागर नागरि राधारानी ॥ ९५ ॥ नागरि नागर करत विहार । कामनृपति सैना दुहुँ । अंगनि सोभा वारनपार ॥ अधर अधर नैननि नैननि भ्रुव भाल कियो इकठोर मन इंदीवर कमल कसेसे चारि भँवर रंग और ॥ वंदन भाल विहँसनि दोऊ अरस परस वरनारि । मनों विच चंद चकोर परस्पर कमल अरुन. रविधारि ॥ ९६ ॥ गुंडमलार ॥ श्यामा श्याम परम कुश- ल जोरी । मनों नव जलद पर दामिनिकी कला सहज गति मेटि श्रुति भई भोरी। अलक विथुरी ।। श्याम मुख पर रहे मनों बल राहु शशि घेरि लीन्हों। चितै मुख चारु 'चुंबन करति सकुच. तजि दशन छत अधर पिय मगन दीन्हों। परत श्रम बूंद टप टपकि आनन वाल भई वेहाल रति मोह भारी । विधुपर सुदंत विध्वंत अमृत चुवत सूर विपरीत रति पीडि नारी ॥९७॥ कुरंग ॥ कुंजके निकट कुंज सुरति निरति सो सेजराजत. सुख गात । 'छूटिंगई । तनकी चोली दरकि तरकि गये चारो याम रजनी विहानी भोरे भोर प्रात: ॥ आ लससों उठि बैठे अरस परस दोउ दंपति अति मन मन मुसकात । सूर आश पूरी श्यामा श्याम वनी जोरी निशिरस संधि आये नैन नैननिलजात ॥ ९८ ॥ ललित ॥ राजत दोऊ रतिरंग भरे। सहज प्रीति विपरीति निसा सब आलस सेज परे। अति रणवीर परस्पर दोऊ नेकहु कोउ । न मुरे। अंग अंग बल अपने अनिसों रति : संग्राम लरे ॥. मगन मुरछि रहे खेत सेज पर इत