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(२९६) सूरसागर। . . . । जो देखों नैनन भरि जोई ॥ वृंदावन ढूंन्यो यमुनातट देख्यो वन डोंगरी मंझारी । सखा संग कोउ नहीं अकेलो कांधे कामरि कर लकुटधारी।। बहुतौ धेनु और काहूकी युवती एक मिलीधौं कौन । सुरसंग मेरे वह आई मोको उहि पहुँचायो भौन ॥ ७१ ॥ रामकली ॥ राधा अतिही चतर प्रवीन । कृष्णको सुख दे चली हँसि हंसगति काटछीन ॥ हारके मिस इहां आई श्याम मणिके काज । भयो सब पूरण मनोरथ मिले श्रीब्रजराज । गाँठि आँचर छोरिकै मोतसरी लीन्ही हाथ । सखी आवत देखि राधा लई ताको साथ। युवति वूझति कहां नागरि निशिगई एक याम।। सर व्योरो कहि सुनायो मैं गई तेहि काम ॥७२।। कान्हरो ॥ ऐसीरी निधरक तू राधा । ब्रज घर घर वन वन डोली तू नहीं किया कहुं वाधा ॥ मोको संग बोलि तू लेती करनी करीअगांधा। प्राताहते तू अव आवतिहै रैनि याम लग आधा॥पायो हार किधौं पुनि नाहीं देखौरी मोहिं साधा। आंचर हेरि ग्रीव देखरायो दामन मोल उपाधा ।। मन मन कहति वात यह मिलवति गई श्याम अब राधा।सूरसखी लखि लीनी ताको यह तोहै कछु दुविधा॥७३॥ धनाश्री ॥ कहि राधा किन हार चोरायो । व्रज युवतिनि सबहिन मैं जानति घर घर लेले नाम बतायो ॥ श्यामा कामा चतुरा नवला प्रमुदा सुमदा नारासुखमा शीला अवधा नंदा बंदा यमुना सारिकमला तारा विमला चंदा । चंद्रावलि सुकुमारि । अमला अवला कंजा मुकुता हीरा नीला प्यारि ॥ सुमना बहुला चंपा जुहि ला ज्ञाना भाना भाउ । प्रेमा दामा रूपा हंसा रंगा हरपा जाउदिवा रंभा कृष्णा ध्याना मैना नैना रूप । रत्ना कुसुदा मोहा करुना ललना लोभा नूपाइतनिनमें कहि कोने लीन्हो ताको नाउ वता उ । सूरश्याम हैं चोर तिहारे मैं जानति सव दाउँ ॥ ७४ ॥ शंकराभारन ॥ सुरति रति मानि आइ पिय पैते गजगति गामिनी । मरगजे हार विथुरै वार देखियत आइ गई येकयाम यामिनी ॥ और सोभा सोहाई अंग अंग अरसाय बोलतिहै कहा अलसामिनी । सूरदास छवि निरखति रही रसवश हरी धनि धनि धनि तू भामिनी ॥ ७९ ॥ कान्हरो ॥ उरधारी लट छूटी आननपर भीजी फुलेलनसों आली हरि संग केलि । सोधे अरगजी अरु मरगजी सारी केसरि खोर विराजित कहुँ कहुँ कुचनि. पर दरकी ऑगिया धन वेलिआलस, भरनैन वैन अटपटात जात ऐडात जम्हात गात अंग मोर वहियां झेलि । सुरज प्रभु प्यारी प्यारे संग कार रस विलास अरस परस दोउ अंको मोलि ॥७॥ ललित ॥ आइ तू डगमगात ऐंडात जॅभावति रंगमगी रंग मगी रंग भरिके । चंद उदै मुख देखतही कर दर्पन प्रतिविव निहारि धौ पीक लीक नैनानि छवि परके ॥ विथुरे अलक सुथरे मुख ऊपर अति आनंद उर हरिके। सुखकेलि करिके सूरज प्रभु रसिकराइ रस दश कीन्ही बनाइ नवला नवल झेि मन टरिकै ॥ ७७ ॥ विलावल ॥ सुनिरी राधा अवहि नई। बात कहावनावति मोसों हमहूं ते तुम चतुरदई ॥ कहां ग्वालि कहँ हार तुम्हारो कहां तहां तू आज गईमनहीं जानि लेहु मैं जान्यो जाको रंग तू सदा रई ॥ तेरे गुण परगट करिहौं मैं ऐसी रीति कहुँ नभई । सूर. श्याम जवते संग कीन्हों तवहीते मैं जानि लई ॥ ७८ ॥ बिलावल ॥ इन बातन कछु पावतिरी। विन देखें लोगनसों सुनि सुनि काहे वैर वढावतरी ॥ मोको जहां अकेली देखति तवहीं ये उपजा वतरी। ब्रज युवतिनकी संगति त्यागो पुनि पुनि क्रोध करावतरी ॥ कैसी बुद्धि तुम्हारी सबकी ऐसी ए तुमको भावतरी। सूर शीशतणदै बूझतिही कह तू एही मनावतरी।। ७९॥ गुंडमलार ॥ करति अवसेर वृषभानुनारी।प्रातते गई वासर गयो वीति एकयाम निशिगई धौं कहाँ वारी। हार के त्रासमें कुँवरि बासी बहुत तेही डरन अजहुँ नहि सदन आई कहाँ मैं जाउँ कहा धौं रही रूसिके ।