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सूरसागर।


जो देखों नैनन भरि जोई॥ वृंदावन ढूंढ्यो यमुनातट देख्यो बन डोंगरी मंझारी। सखा संग कोउ नहीं अकेलो कांधे कामरि कर लकुटधारी॥ वहतौ धेनु और काहूकी युवती एक मिलीधौं कौन। सुरसंग मेरे वह आई मोको उहि पहुँचायो भौन॥७१॥ रामकली ॥ राधा अतिही चतुर प्रवीन। कृष्णको सुख दे चली हँसि हंसगति काटछीन॥ हारके मिस इहां आई श्याम मणिके काज। भयो सब पूरण मनोरथ मिले श्रीब्रजराज। गाँठि आँचर छोरिकै मोतसरी लीन्ही हाथ। सखी आवत देखि राधा लई ताको साथ॥ युवति बूझति कहां नागरि निशिगई एक याम। सूर व्योरो कहि सुनायो मैं गई तेहि काम॥७२॥ कान्हरो ॥ ऐसीरी निधरक तू राधा। ब्रज घर घर वन वन डोली तू नहीं किया कहुं बाधा॥ मोको संग बोलि तू लेती करनी करी अगांधा। प्रातहिते तू अब आवतिहै रैनि याम लग आधा॥ पायो हार किधौं पुनि नाहीं देखौरी मोहिं साधा। आंचर हेरि ग्रीव देखरायो दामन मोल उपाधा॥ मन मन कहति बात यह मिलवति गई श्याम अब राधा। सूरसखी लखि लीनी ताको यह तोहै कछु दुविधा॥७३॥ धनाश्री ॥ कहि राधा किन हार चोरायो। ब्रज युवतिनि सबहिन मैं जानति घर घर लेलै नाम बतायो॥ श्यामा कामा चतुरानवला प्रमुदा सुमदा नारि। सुखमा शीला अवधा नंदा वृंदा यमुना सारि॥ कमला तारा विमला चंदा चंद्रावलि सुकुमारि। अमला अवला कंजा मुकुता हीरा नीला प्यारि॥ सुमना बहुला चंपा जुहिला ज्ञाना भाना भाउ। प्रेमा दामा रूपा हंसा रंगा हरषा जाउ॥ दर्वा रंभा कृष्णा ध्याना मैना नैना रूप। रत्ना कुसुदा मोहा करुना ललना लोभा नूप॥ इतनिनमें कहि कौने लीन्हो ताको नाउ बताउ। सूरश्याम हैं चोर तिहारे मैं जानति सब दाउँ॥७४॥ शंकराभारन ॥ सुरति रति मानि आइ पिय पैतैं गजगति गामिनी। मरगजे हार विथुरै वार देखियत आइ गई येकयाम यामिनी॥ औरै सोभा सोहाई अंग अंग अरसाय बोलतिहै कहा अलसामिनी। सूरदास छवि निरखति रही रसवश हैरी धनि धनि धनि तू भामिनी॥७५॥ कान्हरो ॥ उरधारी लटैं छूटी आननपर भीजी फुलेलनसों आली हरि संग केलि। सोधे अरगजी अरु मरगजी सारी केसरि खोरि विराजित कहुँ कहुँ कुचनि पर दरकी अँगिया धन वेलि॥ आलसहैं भरनैन वैन अटपटात जात ऐडात जम्हात गात अंग मोर वहियां झेलि। सुरज प्रभु प्यारी प्यारे संग करि रस विलास अरस परस दोउ अंको मेलि॥७६॥ ललित ॥ आइ तू डगमगात ऐंडात जँभावति रंगमगी रंग मगी रंग भरिके। चंद उदै मुख देखतहौं कर दर्पन प्रतिबिंब निहारि धौं पीक लीक नैनानि छवि परके॥ विथुरे अलक सुथरे मुख ऊपर अति आनंद उर हरिके। सुखकेलि करिकै सूरज प्रभु रसिकराइ रस वश कीन्ही बनाइ नवला नवल रीझे मन टरिकै॥७७॥ बिलावल ॥ सुनिरी राधा अबहि नई। बातै कहावनावति मोसों हमहूं ते तुम चतुरदई॥ कहां ग्वालि कहँ हार तुम्हारो कहां तहां तू आजु गई। मनहीं जानि लेहु मैं जान्यो जाको रंग तू सदा रई॥ तेरे गुण परगट करिहौं मैं ऐसी रीति कहुँ नभई। सूरश्याम जबते संग कीन्हों तबहीते मैं जानि लई॥७८॥ बिलावल ॥ इन बातन कछु पावतिरी। विन देखें लोगनसों सुनि सुनि काहे वैर वढावतरी॥ मोको जहां अकेली देखति तबहीं ये उपजावतरी। ब्रज युवतिनकी संगति त्यागो पुनि पुनि क्रोध करावतरी॥ कैसी बुद्धि तुम्हारी सबकी ऐसी ए तुमको भावतरी। सूर शीशतणदै बूझतिहौ कह तू एही मनावतरी॥७९॥ गुंडमलार ॥ करति अवसेर वृषभानुनारी। प्रातते गई वासर गयो वीति एकयाम निशिगई धौं कहाँ वारी। हार के त्रासमैं कुँवरि त्रासी बहुत तेही डरन अजहुँ नहिं सदन आई कहाँ मैं जाउँ कहा धौं रही रूसिकै