दिक नारद शारद अंत न पावै तुम्बर। सुर श्याम गति लखि न परत कछु खात ग्वालन तजि संमर॥६०॥ गौरी ॥ सुरति अंत बैठे बनवारी। प्यारी नैन जुरत नहिं सन्मुख सकुचि हँसत गिरिधारी॥ वसन सँभारि तन लेत गये दोऊ आनँद उर न समाइ। चितवत दुरि दुरि नैन लजौही सो छबि वरनि न जाइ॥ नागरि अंग मरगजी सारी कान्ह मरगजे अंग। सूरज प्रभु प्यारी वशकन्हिा हाव भाव रति रंग॥६१॥ सोरठ ॥ रीझे श्याम नागरी छबिपर। प्यारी एक अंग पर अटकी यह गति भई परस्पर॥ देह दशाकी सुधि नहिं काहू नैन नैन मिलि अटके। इन्दीवर राजीव कमल पर युग खंजन युग लटके॥ चकृत भए तनुकी सुधि आई वनहीं में भई राति। सूरश्याम श्यामा विहार करि सो छबिकी एक भाँति॥६२॥ आसावरी ॥ कान्ह कह्यो वन रौनि न कीजै सुनहु राधिका प्यारी हो। अति हित सों उरलाइ कह्यो अब भवन आपने जारी हो॥ मात पिता जिय जान न कोई गुप्त प्रीति रस भारी हो। करते कौर डारि मैं आयो देखत दोउ महतारी हो॥ तुम जो प्यारी मोही लागत चन्द्र चकोर कहारी हो। सूरदास स्वामी इन बातन नागरि रिझई भारी हो॥६३॥ कल्याण ॥ प्यारी उठि पियके उर लागी। आलस अंग लटकि लट आई दोखि श्याम बडभागी॥ सुरति मोन निशि वीती मानों हँसनि प्रात भयो जागी। अति सुख कंठ लगाइ लई हरि अरस परम अनुरागी॥ नवतनमें घनवेली दामिनि सहज मेंटि मिलि पागी। सूरदास प्रभुको अंकम भरि का मद्वंद्व तनु त्यागी॥६४॥॥ गौरी ॥ कहा करौं पग चलत न घरको। नैन विमुख देखे जात न लुब्धे अरुन अधरको॥ श्रवन कहत वे वचन सुनै नहिं रिस पावत मो परको। मन अटक्यो रस मधुर हँसनि पर डरत नकाहू डरको। इंद्री अंग अंग अरुझानी झ्यामरंग नटवरको। सुनहु सूर प्रभु रही अकेली कहा करौं सुंदरवरको॥६५॥ श्याम आपनी चितवनि वरजो अरु मुखकी मुसकानी। तुम्हरे तनक सहजके कारन सहियत सरवस हानी॥ इजै विजै दोऊ आपुसमें निरये विधना आनि। विद्यमान सबही इन देखत वशकरवेकी वानि॥ आपुनही डहकाय अपुनपो
कहियत कहा वखानि। सूर सुगंथ गँवाइ गांठिको रही वौरई मानि॥६६॥ विहागरो ॥ अतिहित श्याम बोलेवैन। तुम वदन देखे विनाये तृप्तहोत ननैन॥ पलक नहि चितते टरात तुम प्राणवल्लभ नारि सुनति श्रवननि वचन अमृत हरष अंतर भरि॥ मात पित अबसेर करिहै गवनकीजेगेह। सूर प्रभु प्रिय त्रिया आगे प्रगटि पूरन नेह॥६७॥ श्यामप्रगट कीन्हों अनुराग। अतिआनंद मनहि मन नागरि वदति आपने भाग॥ सुंदरघन उत ब्रजहि सिधारे इतहि गमन करि नारि। दंपति नैन रहे दोउ भरि भरि गये सुरति रति सारि॥ जननी मन अवसेर करतिही हरी पहुँचे तेहि काल। सुरश्यामको मात अंकभरि कहति जाउँ वलिलाल॥६८॥ मैं बलि जाऊं कन्हैयाकी। करते कौर डारि उठिधायो व्यात सुनी बनगैयाकी॥ धौंरी गाइ आपनी जानी उपजी प्रीति लवैयाकी । तातो जल समोइ पग धोवति श्याम देखि हित मैयाकी॥ जो अनुराग यशोदाके उर मुखकी कहति नन्हैयाकी। यह मुख सूर और कहुँ नाहीं सौंह करत बलभैयाकी॥६९॥ ईमन ॥ कान्ह प्यारे वारने जाऊं श्याम सुंदर मूरति पर। छबिसों छबीली लटकि वदनपर। चंद्रिकाकी लटकनि अतिहि विराजत मुरली सुभग धरेकर। सुंदरनैन विसाल भौंह सुरचाप मनोतिलक विराजित ललित भालपर। सूरश्याम मेरों अतिवानक बन्यो वनमाला अतिही उर राजत कटि तट सोहत पीतांबर॥७०॥ विहागरो ॥ वइ तो मेरी गाइ न होई। सुन मैया मैं वृथा भरम्यो बन
पृष्ठ:सूरसागर.djvu/३८८
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(२९५)
दशमस्कन्ध-१०