सों। पाछे बंक चितै मधुरै हँसि घात किये उलटे सुठान सों॥ सूरसुमार विथा या तनुकी पटत नहीं ओषधी आनसों॥ ह्वैहै सुख तबहीं उरअंतर आलिंगन गिरिधर सुजानसों॥३३॥ बिलावल ॥ कान्ह उठे
अति प्रातही तल वेली लागी। प्रिया प्रेमके रस भरे राति अंतर खागी॥ श्याम उठत अवलोकिकै जननी तब जागी। सुन्दर वदन विलोकि कै अंग अंग अनुरागी॥ माता पूँछति सुअनको बलि गई मेरे वारे। कहा आजु अचरज कियो तुम उठे सवारे॥ झारी जल दन्तवन दियो छबि परत नवारयो। उत्तम जल लै प्रेमसों सुत वदन पखारयो॥ करी मुखारी अतुरई नागरि रसछाके। सूर श्याम ऐसी दशा त्रिभुवन वश जाके॥३४॥ बिलावल ॥ उत वृषभानुसुता उठी वह भाव विचारै। रैनि विहानी कठिनसों मन्मथ बल भारे॥ ग्रीव मुतसरी तोरिकै अचरा सों बाँध्यो। इहै वहानो करि लियो हरि मन अनुराध्यो। जननी उठी अकुलाइके क्यों राधा जागी। कहां चली उठि भोरही सोवै न सभागी॥ अब जननी सोऊं नहीं रवि किरनि प्रकाशी। तूहु उठे काहे
नहीं जागे ब्रजवासी॥ आपु उठी आँगन गई फिरि थरही आई। कवधौं मिलि हैं श्यामको पल रह्यो न जाई॥ फिरि फिरि आजिरहि भवनही तलवेली लागी॥ सुर श्यामके रसभरी राधा अनुरागी॥३५॥ गुंडमलार ॥ सुतासों कहति वृषभानु घरनी। कहा तू राधिका भोरते फिरति है तेरी गति मोपै नहिं जाति वरनी॥ तोरि मोतीसरी तब गुप्त करि धरयो कहुँ एहि मिसि सकुचि रही मुख न बोलै। मनहुं खंजन चपल चन्दफंदा परयो उडत नहिं बनत इत उतहि डोलै॥ कहा तेरी प्रकृति परीधौं लाडिली अबहिते कहा तू जाहि गीरी। सूर कहै जननि बोले नहीं आज तू परुसि धरिहौ आइ खाइ गीरी॥३६॥ नट ॥ जननी पुनि पुनि ग्रीव निहारै। देखो नहीं मुतसरी माला सो जिनि कतहूं डारै ॥ वोले नहीं बात यह सुनि रही मनलागी मुसकान। अबही मोकों खीझि पठैहै बनिहै काको जान॥ भली बुद्धि मेरे चित आई कृष्ण प्रीतिहै साँची। सूरदास राधिका नागरी नागरके रँगराची॥३७॥ सोरठ ॥ जननी अतिहि भई रिसहाई। बार बार कहै कुँवरि राधिकारी मोतिसरी कहां गमाई॥ बूझते तोहि ज्वाब नआवै कहा रही अरगाई। चौसरहार अमोल गरेको देहु न मेरी माई॥ कालिहि ते रीतोगर तेरो डारि कहूँ तू आई। सुनहु सूर माता रिस देखत राधा हँसति डेराई॥३८॥ बिलावल ॥ सुनरी मैया कालही मोतसरी गवाई। सखिन मिले यमुनागई धौं उनहि चुराई॥ कीधौं जलहीमें गई यह सुधि नहिं मेरे। तबते मैं पछितातिहौं कहतिन डरतेरे॥ पलक नहीं निशि कहूँ लगी मोहिं शपथरी तेरी। येहि डरते मैं आजुही अतिउठी सवेरी॥ महरि सुनत चकृत भई मुख ज्वाब न आवै। सूर
राधिका गुनभरी कोउ पार न पावै॥३९॥ गुंडमलार ॥ क्रोध करि सुतासों कहति माता। तोहिं वरजत मरी अचगरी रिसपरी गर्व गंजन नामहै विधाता॥ तेरो दोष नहीं भ्रमती तू जहीं तहीं नदी डोगर वन वन पात पाता। मात पित लोककी कानि मानै नहीं निलज भई रहति नहीं लाज गाता॥ भली नहिं उनकरी शीशतोकोधरी जगतमें सुता तू महरताता। बात सुनिहै श्रवण भई विनीहही भवन सूरडारै मारि आजु भ्राता॥४०॥ धनाश्री ॥ जाहु तहीं मोतिसरी गमाई। तबहीं तौ घर पैठन पैहो अब ऐसे ढंग आई॥ जो वरजो आपुन सोइ सोइ करै देखोरी गुन माई। एक एक नग
सत सत दामनिके लाख टकादै ल्याई। जाके हाथ परयोसो दैहै घर बैठे निधि पाई। सूर सुन तरी कुँवार राधिका तोको नहीं भलाई॥४१॥ टोडी ॥ भरि भरि नैन लेतिहै माता। मुखते कछु आवै नहिं बाता॥ रीतो ग्रीव निहारत जबही। हियो उमँगि आवतहै तबही॥ मोतसरीते
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सूरसागर।