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१२९२) सूरसागर। सों। पाछे वंक चितै मधुरै हँसि घात किये उलटे सुठान सों।सूरसुमार विथा या तनुकी पटत नहीं ओषधी आनसोहिहै सुख तवहीं उरअंतर आलिंगन गिरिधर सुजानसों ॥३३॥ विलावल|| कान्ह उठे अति प्रातही तल वेली लागी। प्रिया प्रेमके रस भरे राति अंतर खागी ॥ श्याम उठत अवलो किकै जननी तब जागी। सुन्दर वदन विलोकि कै अंग अंग अनुरागी।। माता पूछति सुअनको बलि गई मेरे वारे । कहा आजु अचरज कियो तुम उठे सवारे ॥ झारी जल दन्तवन दियो छवि परत नवारयो । उत्तम जल लै प्रेमसों सुत वदन पखारयो ॥ करी मुखारी अतुरई नागरि रस छाके । सूर श्याम ऐसी.दशा त्रिभुवन वश जाके ॥३४॥ बिलावल ॥ उत वृषभानुसुता उठी वह भाव विचारै । रैनि विहानी कठिनसों मन्मथ वल भारे ॥ ग्रीव मुतसरी तोरिकै अचरा सों वाँध्यो। इहै वहानो करि.लियो हरि मन अनुराध्यो । जननी उठी अकुलाइके क्यों राधा जागी। कहां चली उठि भोरही सोवै न सभागी॥ अव जननी सोऊं नहीं रवि किरनि प्रकाशी । तूहु उठे काहे नहीं जागे ब्रजवासी॥ आपु उठी ऑगन गई फिरि थरही आई । कवौं मिलि हैं श्यामको पल रह्यो न.जाई। फिरि फिरि आजिरहि भवनही तलवेली लागी ॥ सुर श्यामके रसभरी राधा अनुरागी ॥ ३५ ॥ गुंडमलार ॥ सुतासों कहति वृषभानु घरनी। कहा तू राधिका भोरते फिरति है. तेरी गति मोपै नहिं जाति वरनी ॥ तोर मोतीसरी तव गुप्त करि धरयो कहुँ एहि मिसि सकुचि रही मुख न बोलै । मनहुँ खंजन चपल चन्दफंदा परयो उडत नहि बनत इत उतहि । डोलै ॥ कहा तेरी प्रकृति परीधौं लाडिली अवहिते कहा तू जाहि गीरी । सूर कहै जननि बोले नहीं आज तू परुसि धरिहौ आइ खाइ गौरी॥३६॥ नट |जननी पुनि पुनि ग्रीव निहा। देखो नहीं मुतसरी माला सो जिनि कतहूं डारै ॥ वोले नहीं बात यह सुनि रही मनलागी सुस कान । अवही मोकों खीझि पठहै वनिहै काको जान ।। भली बुद्धि मेरे चित आई कृष्ण प्रीतिहै साँची । सूरदास राधिका नागरी नागरके रंगराची ॥ ३७॥ सोरठ ॥ जननी अतिहि भई रिस हाई । वार बार कहै कुँवरि राधिकारी मोतिसरी कहां गमाई ।। बूझते तोहि ज्वाव नआवै कहा रही. अरगाई । चौसरहार अमोल गरेको देहु न मेरी माई ॥ कालिहि ते रीतोगर तेरो डारि कहूँ तू आई। सुनहु सूर माता रिस देखत राधा हँसति डेराई ॥३८॥ विलावल ॥ सुनरी मैया कालही मोतसरी गवाई। सखिन मिले यमुनागई धौ उनहि चुराई ॥ कीधौं जलहीमें गई यह सुधि नहि मेरे। तबते मैं पछितातिहीं कहतिन डरतेरे।। पलक नहीं निशि कहूँ लगी मोहिं शपथरी तेरी। येहि डरते .मैं आजुही अतिउठी.सवेरी ॥ महरि सुनत चकृत भई मुख ज्वाव न आवै । सूर राधिका गुनभरी कोउ पार न पावै ॥ ३९ ॥ गुंडमलार ॥ क्रोध करि सुतासों कहति माता । तोहिं वरजत मरी अचगरी रिसपरी गर्व गंजन नामहै विधाता ।। तेरो दोष नहीं भ्रमती तू जहीं तहीं नदी डोगर वन वन पात पाता। मात पित लोककी कानि माने नहीं निलज भई रहति नहीं लाज गाता ॥ भली नहिं उनकरी- शीशतोकोधरी जगतमें सुता तू महरताता । बात सुनिहै श्रवण भई विनी भवन सूरडार मारि आज भ्राता ॥४०॥ धनाश्री ।। जाहु तहीं मोतिसरी गमाई । तवहीं तो घर पैठन पैहो. अब ऐसे ढंग आई ॥जो वरजो आपुन सोइ सोइ करै देखोरी गुन माई। एक एक नग सत सत दामनिके लाख टकादै ल्याई । जाके हाथ परयोसो दैहै घर बैठे निधि पाई । सूर सुन तरी कुँवार राधिका तोको नहीं भलाई ॥४१॥ टोडी ॥ भरि भरि नैन लेतिहै माता । मुखते कछु आवै. नहिं वाता ।। रीतो ग्रीव निहारत जवही । हियो उमॅगि आवतहै तवही ॥ मोतसरीते । - -