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सूरसागर।


पावतिहौं अपने तन मन मेरी सुरति करौ। दीनदयालु कृपाकरौ मोको कामद्वंद दुख और विरह हरौ॥ तुम बहुवरनि रखनमैं जानति याहीके धोखमोसों काहेको लरो। सूरदास स्वामी तुमहो अंतर्यामी मनसा वाचा ध्यान तुमसोंधरौ॥१३॥ कान्हरो ॥ हो या मायाही लागी तुम कत तोरत। मेरो ज्यो तिहारे चरननिही लाग्यो धीरज क्यों रहै रावरे मुख मोरत॥ को लै बनाइ बातै मिलवति तुम आगे सो किनआइ मोसों अब जोरत। सुरश्याम पिय मेरे तौ तुमही जिय तुम विनु देखे मेरो हियो कोरत॥१४॥ बिलावल ॥ सुनहु श्याम मेरी यक बात। हरिप्यारीके मुखतन चितवत मनही मनहुसिहात॥ कहाकहति वृषभानु नंदिनी बूझतहै मुसुकात। कनकवरन सुँदरी राधिका कटि कृष कोमलगात॥ तुमही मेरे प्राण जीवनधन अहो चंद्र तुअ भ्रात। सुनहु सूजो कहति रही तुम कहो न कहा लजात॥१५॥ गुंड ॥ नागरी श्यामसों कहत पानी सुनहु गिरिधर नवल शीशश्रीखंडधर जयति सुर नागरस सहसवानी॥ रुद्रयति छुद्रयति लोकपति वोकपति धरनिपति गगनपति अगमवानी। अखिल ब्रह्मांडपति तिहुँभुवनाधिपति नीरपति पवनपति अगमवानी॥ सिंहके शरन जंबुक त्रास करै जब कृष्ण राधा एक जग बतानी। सूरप्रभु श्याम तुअ नाम करुणाधाम करौ मनकाम सुनि दीनवानी॥१६॥ गुंडमलार ॥ विहसि राधा कृष्णअंक लीनी। अधरसों अधर जुरि नैनसों नैन मिलि हृदै सो हृदय लगि हरष कीन्ही॥ कंठ भुज जोरि नारि उछंगलीन्हीं भवन दुखटारि सुख दियो भारी॥ हरषि बोले श्याम कुंज वन धन धाम तहां हम तुम संग मिलैंप्यारी॥ जाहु गृह परमधन हमहु जैहैं सदन आइ कहुँ पास मोहि सैनदैहौ। सूर यह भावदै तुरतही गमन करि कुंजगृह सदन तुम जाइ रैहौ॥१७॥ गुंडमलार ॥ यह सुनत नागरी माथनायो श्याम रसवश भरे मदन जियमेंडरे सुंदरी बातको भेदपायो। खरे ब्रज यमुन विच दुहुनि मनअति सकुच और कछु बनै नहिं बुद्धिठानी। तबहि ब्रजनारि आवत देखि यमुनाते एकब्रजहिते जु राधा लजानी॥ श्याम हँसिकै चले तुरत ग्वालनि मिले कहां सब रहे कहि हांक दीन्हो। भाव यह करि गए सूर प्रभु गुननए नागरी रसिक जिय जानि लीन्हो॥१८॥ टोडी ॥ राधा हरिके भावहि जान्यो। इहै बात कैहौं इन आगे मनही मन अनुमान्यो॥ उन देखी राधा मग ठाढी श्याम पठाए टारि। बूझतही कछु बुद्धि रचैगी बड़ी चतुर यह नारि॥ इत वृषभानुसुता मन सोचति सोहि देखि हरिसंग। सूर अबहि बातनि करि धरिहै जानति इनके रंग॥१९॥ गुंडमलार ॥ चतुर वर नागरी बुद्धि ठानी। अबहिं मोहिं बूझिहै इनहि कैहौं कहा श्याम संग आजु मोहिं प्रगटजानी। भावकरि गए हरि ग्वाल बूझत रहे जानि जियलई अति चतुर रासी। यहरचौ बुद्धि एक कहा एकहैं मोहिं मेरे मन सबै घोषवासी॥ इतहुँकी सबै जुरि एकठी कहतिं राधा कहां जाति हैरी। सुरप्रभु को अबहिं देखे हम तेरे ढिग कहां गए तिनहिं पछिताति हैरी॥२०॥ गूजरी ॥ कान्ह कहा बूझत हैं तुमको। ह्वांहीते लखि लीन्ही तबहीं कहां दुरावति हमको॥ मन लैगए चुराइ तुम्हारो सो अपनो तुम पायो। अपनो काज सारि तुम लीन्हो हम देखतहि पठायो॥ सदा चतुरई फवती नाहीं अतिही निझरि रहीहो। सूरश्यामधौं कहां रहतहै यह कहि कहि युतहीहौ॥२१॥ अलहिया ॥ कहति रही तब राधिका जब हरिसंग पेखो। वेसरिलीज्यो छीनिकै मुख तन कहा देखो॥ देहो वेसरि की नहीं की लेहिं छडाइ। चतुराई प्रगटी अबै ऐसीहौ माइ॥ वार वार नागरि हँसे तरुनी वेहानी। ऐसेहि वेसरि लेहुगी सब भई अयानी॥ हम मूरख तुम चतुरहौ कछु लाज न आवे। सूर श्याम संग नहीं रही अब कहा दुरावै॥२२॥ सोरठ ॥ इहै कहन मोको तुम आई। इत ते ये