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सूरसागर।


तुम जानति राधाहै छोटी। चतुराई अंग अंग भरीहै पूरण ज्ञान न बुद्धिकी मोटी॥ हमसों सदा दुरावति सोइहि बात कहै मुख चोटी पोटी। कबहुँ श्यामते नेक नबिछुरति किये रहति हमसों हठयोटी॥ नँदनंदन याहीके वश हैं विवस देखि वेंदी छबि चोटी। सूरदास प्रभु वै अति खोटे यह उनहीते अतिही खोटी॥७५॥ बिलावल ॥ सखी कहति तू बात गँवारी। याकी सरि कैसे कोउ ह्वैहै जाके वश हैं श्रीवनवारी॥ ब्रजभीतर इह रूप आगरी ब्रतलीन्हों दृढगिरवर धारी॥ प्रीति गुप्तहीकोहै नीकी यापर मैं रीझीहौं भारी॥ सांची कहौं नेह ऐसोई पाछे मोको दीजो गारी। सूरदास राधा जो खोटी तौ देखो यह कृष्ण पियारी॥७६॥ गूजरी ॥ सुनहु सखी राधासरि कोहै। जेहरिहैं रतिपति मनमोहन याको सुख सो जोहै॥ जैसे श्याम नारि यह तैसी सुंदर जोरी सोहै। इह द्वादश वेऊ दशद्वैके ब्रजयुवतिन मनमोहै। मैं इनको घटि वढि नहिं जानति भेद करैसो कोहै। सूरश्याम नागर इह नागरि एक प्राणतनुद्वैहै ॥७७॥ गूजरी ॥ सुनि सजनी ए ऐसे लागत। एक प्राण युग तन सुख कारण एकौ निमिष न त्यागत॥ विछुरत नहीं संगते दोऊ बैठे सोवत जागत। पूरवनेह आजु यह नाहीं मोसों सुनहु अनागत॥ मेरी कही सांची तुम जानो कीजे आगत स्वागत। सूरश्याम राधावर ऐसे प्रीतिहिते अनुरागत॥७८॥ जैतश्री ॥ सखी सखीसों धन्य कहै। इनको हम ऐसे नहिं जाने ब्रजभीतर ए गुप्त रहै॥ धन्य धन्य तेरी मति साँची हम इनका कछु और कहै। राधा कान्ह एकहैं दोऊ तो इतनो उपहास सहै। वै दोऊ एक दूसरी तूहै तोहूको सखि श्याम चहै। सूरश्याम धनि अरु राधा धान तुहूं धन्य हम वृथा वहै॥७९॥ धनाश्री ॥ धन्य धन्य यह तेरी बानी। तैं नीके हरिको पहिचानें अब हम तुमको जानी॥ राधा आधा देह श्यामकी तू उनकी विचवानी। राधाहूते अधिक श्यामसों तेरी प्रीति पुरानी॥ जो हरिकी संगिनि तू नाहीं आदिने हक्यों मानी। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि यह रस कथा बखानी॥८०॥ पूरवी ॥ हे माई राधा मोहन सहज सनेही। सहजरूप गुण सहज लाडिली एक प्राणदै देही॥ सहज माधुरी अंग अंगप्रति सहज सदावन ग्रेही। सूरश्याम श्यामा दोऊ सहजहि सहज प्रीति करि लेही॥८१॥ आसावरी ॥ राधा नँदनंदन अनुरागी। भव चिंता हिरदै नहिं एको श्याम रंग रस पागी॥ हरद चूनरंग पय पानी ज्यों दुविधा दुहुँकी भागी। तनमन प्राण समर्पण कीन्हों अंग अंग रतिखागी॥ ब्रजवनिता अवलोकन करि करि प्रेम विवस तनत्यागी। सूरदास प्रभुसों चितलाग्यो सोवत ते मनुजागी॥ मारू ॥ गोपी श्यामरंग राची। देह गेह सुधि विसारी वढी प्रीति सांची॥ दुविधा उर दूरि भई गई मति वह काची। रांधाते आप बिवस भई उघरि गई नाची॥ हरितजि जो और भजै पुहुमि लीक खांची। मात पिता लोक भीत वाकी नहिं बाची॥ संकुच जबहिं आवै उर वारंवार झांची। सूरश्याम पद पराग ताहीमें माची॥८२॥ मारू ॥ श्याम जल सुजल जल ब्रजनारि खोरै। नदी माला जुजल तट भुजा अति सबल धार रोमावली यमुन भोरै॥ नयन ठहरात नहिं वहत अति तेजसी तहां गयो चित्त धीरज सँभारै। मन गयो तही आपुन रही निकट जल एकएक अंग छबि सुधि विचारै। करति स्नान सब प्रेम बुडकी देहि समुझि जियहोइ भजि तीर आवै। सूर प्रभु श्याम जलराशि ब्रजवासीन करति अनुमान नहिं पारपावै॥८३॥ बिलावल ॥ श्यामरंग राची ब्रजनारी। और रंग सब दीन्ही डारी॥ कुसुमरंग गुरुजन पितुमाता। हरितरंग भैनी अरु भ्राता॥ दिनाचारि में सब मिटि जैहै। श्यामरंग अजरायल रैहै॥ उज्ज्वलरंग गोपिका नारी। श्यामरंग गिरिवरके धारी॥ श्यामहि में सबरंग वसरो