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दशमस्कन्ध-१०


फिरत बहीरी॥ आइ अचानकही लैगए हरि वार वारमैं हटकि रहीरी। मेरो कह्यो सुनत काहेको लेगए हार हरिके उतहीरी॥ ऐसी करत कहूंरी कोऊ कहाकरौं मैंहारि रहीरी। सूरश्यामको यह न बूझिये ढीठ कियो मनकोउ नहींरी॥६४॥ टोडी॥ माखनकी चोरी तैं सखि करन लगे अब चितहूकी चोरी। जाके दृष्टिपरे नँदनंदन सोउ फिरति गोहन डोरी डोरी॥ लोकलाज कुलकानि मेटि करि बन बन डोलति नवलकिसोरी। सूरदास प्रभु रसिक शिरोमणि जबते देखे निगम वानि भई भोरी॥६५॥ आसावरी ॥ क्यों सुरझाऊँरी नंदलालसों अरुझि रह्यो मन मेरो। मोहन मूरति कहुँ नैक न विसरति कहि कहि हारि रही कैसेहु करत नफेरो॥ बहुत यतन घेरि घेरि राखति फेरि फेरि लरत सुनत नहि टेरो। सूरदास प्रभुके संग रसवश भई डोलत निशि वासर कहुँ निरखत पायो नडेरो॥६६॥ बिलावल ॥ मैं अपनो मन हरत नजान्यो। कब धौंगयो संग हरिके वह कीधौं पंथ भुलान्यो॥ कीधौं श्याम हटकिहैं राख्यो कीधौं आपुर तान्यो। कहिते सुधि करी न मेरी मोपर कहा रिसान्यो॥ जबहीते हरि ह्यां ह्वै निकरे वैरतवहि ते ठान्यो। सूरश्याम संग चलन कह्यो मोहिं कह्यो नहीं तब मान्यो॥६७॥ गूजरी ॥ श्याम करतहैं मनकी चोरी। कैसे मिलत आनि पहिलेही कहि कहि पतियां भोरी॥ लोकलाजकी कानि गमाई फिरत गुडीवश डोरी। ऐसेढंग श्याम अब सीखे चोर भयो चितकोरी॥ माखनकी चोरी सहिलीन्ही वात रही वह थोरी। मुरश्याम भए निडर तबहिते गोरस लेत अजोरी॥६८॥ टोडी ॥ सुनहु सखी हरि करत न नीकी। आपस्वारथीहैं मन मोहन पीर नहीं औरनकी॥ वेतो निठुर सदा मैं जानतिवात कहत मनदीकी। कैसे उनहिं वहां कार पाऊं रिसमेटौं सब जीकी॥ चितवतन हीं मोहि सपनेहूँको जानै उनहीकी। ऐसे मिले सूरके प्रभुको मनहुं मोललै वीकी॥६९॥ आसावरी ॥ माईरी कृष्ण नाम जबते श्रवण सुन्योरी तबते भूलीरी भवन बावरीसी भईरी। भार भरि आवै नैन चित न रहत चैन वैननिहू सुध्यौ भूली मनकी दशा सब औरै ह्वै गईरी। कोमाता कौन पिता कौन भैनी कौन भ्राता कौन प्रान कौन ज्ञान कौन ध्यान मदन हईरी। सुरश्याम जबते परेरी मेरे दृष्टि वाम काम धाम निशियाम लोकलाज कुलकानि नईरी॥७०॥ रामकली ॥ राधातें हरिके रँगराची। तोते चतुर और नहिं कोऊ बात कहों मैं सांची॥ तैं उनको मन नहीं चुरायो ऐसी हे तू काची। हरि तेरोमन अबहिं चुरायो प्रथम तुहीहै नाची॥ तुम अरु श्याम एकहौ दोऊ बाकी नाहीं वाची। सूरश्याम तेरे वश राधा कद्दति लीक मैं खांची॥७१॥ नैनश्री ॥ तू काहेको करति सयानी। श्याम भए पश पहिले तेरे तब तू उनके हाय विकानी॥ वाकी नहीं रही नेकहु अब मिली दूध ज्यों पानी। नँदनंदन गिरिधर बहुनायक तू तिनकी पटरानी॥ तोसी कौन वडिभागिनि राधा यह नीके कार जानी। सूरश्याम संग हिलि मिलि खेलो अजहुँ रहति बौरानी॥७२॥ सोरठ ॥ मन हरि लीन्हों कुँवर कन्हाई। तबहीते मैं भई बौरानी कहा करों री माई॥ कुटिल अलक भीतर अरुझाने अब निरूवारि नजाई। नैन कटाक्ष चारु अवलोकनि मोतन गये बसाई॥ निलजभई कुल कानि गँवाई कहा ठगोरी लाई। वारंवार कहति मैं तोको तेरे हिये न आई॥ अपनी सी बुधि मेरी जानति उतनी मैं कहांपाई। सूरश्याम ऐसी गति कीन्हीं देह दशा विसराई॥७३॥ रामकली ॥ राधा हरि अनुराग भरी। गदगद मुख वाणी परकाशत देह दशा विसरी॥ कहति इहै मन हरि हरि लैगये एही परनिपरी। लोक सकुच संका नहिं मानति श्यामहिरंग ढरी॥ सखी सखीसों कहति बावरी येहि हमको निदरी। सुरश्याम संग सदा रहतिहै बूझेहू नकरी॥७४॥ सूही बिलावल