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- - --- - - (२८२) सूरसागर। पठवतिहौं मन तिनहि मनावन निशि दिन रहत अरेरी । ज्यों ज्यों मान करति उलटावत त्यों त्यों होत खरेरी ॥ पचिहारी समुझाइ सोचि पचि पुनि पुनि पाँइ परेरी । सो सुख सूर कहालों वरणौं एक टकते न टरेरी ॥ सारंग ॥ जवते प्रीति श्यामसों कीन्ही । तादिनते मेरे इन नैननि नेकहु नींद न लीन्हीं।सदा रहैं मन चाक चढ्यौ सो और न कछू सोहाइ ।करत उपाइ बहुत मिलि वेको इहै विचारत जाइमर सकल लागत ऐसी यह सो दुख कासों कहिये।ज्यों अचेत वालककी वेदन अपनेही तन सहिये ॥ ४३ ॥ अडानो ॥ को जानै हार कहा कियोरी । मन समझति मुख कहत न आवै कछु एक रस लोचन जुपियोरीगढी हुती अकेली आंगन आनि अचानक दरश. दियोरी । सुधि बुधि कछु न रही तेहि अवसर मेरो मन किधौं पलटि लयोरीता सुख हेतु दहति दुख दारुण छिन छिन जरति जुडात हियोरी । सूर सकल आनत उर अंतर उपमाको पावतिन. वियोरी ॥४४॥ सारंग ॥ मेरे हरि अँगनाद्वै जगएरी निकसे आइ अचानक सजनी इत फिरि फिरि चितयेरीअति दुखमें पछिताति यहै कहि नैनन बहुत ठयेरीजो विधि इहै कियो चाहत हो? मुहि कत वदएरी|सव दैलेउ लाखलोचनसखी ज्यों कोऊ जड़त नए थाके सूर पथिकमगमानो मदन व्याध विधयेरी॥ कान्हरो ॥ पीतांवरकी सोभा सखीरी मोपै कही नजाई । सागरसुतापति आयुध मानो बनरिपु रिपुमैदेति दिखाइजारि पवन तहि महि सुव स्वामी आभा कुंडल कोटि दिखाई। छायापति तनु बदन विराजत बंधु अधरनए लजाई ॥ नाकी नाय कुवाहनकी गति मुरली सुधु नि वजाई । सूरदास प्रभु हरि सुत वाहन तासुत हरिलै सरह वनाई ॥ सारंग ॥ टरति नटारे इहछवि मनमें चुभी । श्याम सुसघन पीत वर दामिनि चातक आँखियाहो जाइ तुभी है जलधार हार मुकुतामनों वक पंगति कुमुदमाल सुभी । गिरागंभीर गरज मनु सुनि सखी खानि के श्रवन देखभी ॥ मोहन वानीहौं ठगी रही इकटकहौं जुउभी। सूरदास मोहन मुख निरखत उपजी सकल तनकाम [भी ॥ विलावल ॥ नंदकेलाल हरयो मनमोर । हौं बैठी पोवति मोतिअनलर का करडारि चले सखिभोर ॥ बकविलोकान चाल छवीली रसिक शिरोमणि नंद किसोर । कहि काको मन रहत श्रवण सुनि सरस मधुर मुरली की घोर । इंदु गोविदु बदनको कारन चितवाति नैन विहंग चकोर । सूरदास प्रभुके जुमिलनको कुच श्रीफलहो करति अकोर ॥ अडानो ॥ मेरो मन गोपाल हरचोरी । चितवतही उर पैठि नैनमन नाजानों धौं कहां कह्योरी ।। मात पिता पति बंधु सजन जन सखियां गन सब भवन भरचोरी । लोक वेद प्रतिहार पहरुआ तिनहूँपै राख्यो न परयोरी॥ धर्म धीर कुलकानि कुंची कर तेहि तारौदै द्वार धरयोरी। पलक कपाट कठिन उर अंतर इतेह जतन कछुवै न सरयोरी॥ बुधि विवेक बल सहित सच्यो पचि सुधन अटल कवहूं न टरचोरी । लियो चुराइ चितै चित सजनी सूर सो मोतन जात जरयोरी ॥ ४५ ॥ अडानो ॥ मेरो मन तवते न फिरचोरी । गयो जुसंग श्याम सुंदरके तहांते कवहूं न टरचोरी ॥ जोवनरूप गर्वधन सचि सचि हों उरमे जु धरचोरी। कहाकहौं कुलशील सकुच सचि सरवस हाथ परयोरीविनु देखोमुख मनु हरिको यह निर्शि दिन रहत अरचोरी। सूरदास या वृथा लाजते कछुअ नकाज सरयोरी ॥४६॥ सारंग ॥ यह सर्व मैंही पोच करी । श्यामरूप निरखति नैननि भरि भौंहनि फंद परी ॥ वै किसोर कमनीय मुगधमैं लुबुधतहूँ न डरी । अब छवि गई समाइ हियेमें टारतहू नटरी ।। अति सुख दुख संभ्रम व्याकुलता विधु मुख सनमुखरी । बुधि विवे ॥ क बल वचन विवस आनंद उमॅगि भरी ॥ यद्यपि शूल सहत सुनि सूर सु अंगहउदै नअरी।। -