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सूरसागर।


पठवतिहौं मन तिनहि मनाबन निशि दिन रहत अरेरी। ज्यों ज्यों मान करति उलटावत त्यों त्यों होत खरेरी॥ पचिहारी समुझाइ सोचि पचि पुनि पुनि पाँइ परेरी। सो सुख सूर कहालों वरणौं एक टकते न टरेरी॥ सारंग ॥ जबते प्रीति श्यामसों कीन्ही। तादिनते मेरे इन नैननि नेकहु नींद न लीन्हीं॥ सदा रहैं मन चाक चढ्यौ सो और न कछू सोहाइ। करत उपाइ बहुत मिलिवेको इहै विचारत जाइ॥ सूर सकल लागत ऐसी यह सो दुख कासों कहिये। ज्यों अचेत बालककी वेदन अपनेही तन सहिये॥४३॥ अडानो ॥ को जानै हार कहा कियोरी। मन समझति मुख कहत न आवै कछु एक रस लोचन जुपियोरी॥ ठाढी हुती अकेली आंगन आनि अचानक दरश दियोरी। सुधि बुधि कछु न रही तेहि अवसर मेरो मन किधौं पलटि लयोरी॥ ता सुख हेतु दहति दुख दारुण छिन छिन जरति जुडात हियोरी। सूर सकल आनत उर अंतर उपमाको पावतिन वियोरी॥४४॥ सारंग ॥ मेरे हरि अँगनाह्वै जगएरी। निकसे आइ अचानक सजनी इत फिरि फिरि चितयेरी॥ अति दुखमें पछिताति यहै कहि नैनन बहुत ठयेरी। जो विधि इहै कियो चाहत हो द्वै मुहिकत वदएरी॥ सब दै लेउ लाखलोचनसखी ज्यों कोऊ जड़त नएरी। थाके सूर पथिकमगमानो मदन व्याध विधयेरी॥ कान्हरो ॥ पीतांबरकी सोभा सखीरी मोपै कही नजाई। सागरसुतापति आयुध मानो वनरिपु रिपुमैदेति दिखाइ॥ जाअरि पवन तहि महि सुव स्वामी आभा कुंडल कोटि दिखाई। छायापति तनु बदन विराजत बंधु अधरनए लजाई॥ नाकी नाय कुवाहनकी गति मुरली सुधुनि वजाई। सूरदास प्रभु हरि सुत वाहन तासुत हरिलै सरह वनाई॥ सारंग ॥ टरति नटारे इहछबि मनमें चुभी। श्याम सुसघन पीत वर दामिनि चातक आँखियाहो जाइ तुभी॥ है जलधार हार मुकुतामनों वक पंगति कुमुदमाल सुभी। गिरागंभीर गरज मनु सुनि सखी खानि के श्रवन देखुभी॥ मोहन वानीहौं ठगी रही इकटकहौं जुउभी। सूरदास मोहन मुख निरखत उपजी सकल तनकाम गुँभी॥ विलावल ॥ नंदकेलाल हरयो मनमोर। हौं बैठी पोवति मोतिअनलर का करडारि चले सखिभोर॥ बंकविलोकनि चाल छबीली रसिक शिरोमणि नंद किसोर। कहि काको मन रहत श्रवण सुनि सरस मधुर मुरली की घोर। इंदु गोविदु बदनको कारन चितवति नैन विहंग चकोर। सूरदास प्रभुके जुमिलनको कुच श्रीफलहो करति अकोर॥ अडानो ॥ मेरो मन गोपाल हरचोरी। चितवतही उर पैठि नैनमन नाजानों धौं कहा कह्योरी॥ मात पिता पति बंधु सजन जन सखियां गन सब भवन भरयोरी। लोक वेद प्रतिहार पहरुआ तिनहूंपै राख्यो न परयोरी॥ धर्म धीर कुलकानि कुंची कर तेहि तारौदै द्वरिधरयोरी। पलक कपाट कठिन उर अंतर इतेहु जतन कछुवै न सरयोरी॥ बुधि विवेक बल सहित सच्यो पचि सुघन अटल कबहूं न टरयोरी। लियो चुराइ चितै चित सजनी सूर सो मोतन जात जरयोरी॥ ४५॥ अडानो ॥ मेरो मन तबते न फिरयोरी। गयो जुसंग श्याम सुंदरके तहांते कबहूं न टरयोरी॥ जोवनरूप गर्वधन सचि सचि हों उरमे जु धरयोरी। कहाकहौं कुलशील सकुच सचिसरवस हाथ परयोरी॥ विनु देखोमुख मनु हरिको यह निशिं दिन रहत अरयोरी। सूरदास या वृथा लाजते कछुअ नकाज सरयोरी॥४६॥ सारंग ॥ यह सर्व मैंही पोच करी। श्यामरूप निरखति नैननि भरि भौंहनि फंद परी॥ वै किसोर कमनीय मुगधमैं लुबुधतहूँ न डरी। अब छबि गई समाइ हियेमें टारतहू नटरी॥ अति सुख दुख संभ्रम व्याकुलता विधु मुख सनमुखरी। बुधि विवेक बल वचन विवसह्वै आनंद उमँगि भरी॥ यद्यपि शूल सहत सुनि सूर सु अंगहउदै नअरी।