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दशमस्कन्ध-१० (२८) जाउँ तहीं जहँ र श्यामवन निरखत एक टक ते नटरोंरी । सुनिरी सखी दशा यह मेरी सो कहिौं अब कहा मरौरी । सुरश्याम लोचन भार देखों कैसे इतनी साध मरौरी ॥ ३३ ॥ बिलावल ॥ हरि दरशनकी साध मुई। उड़िये उड़ी फिरति नेनति संग फरफूटै ज्यों आक रुई ॥ जानों नहीं। कहाते आवति वह मूरति मनमाहँ उई । विनदेखेकी यथा विरहनी अति जुर जरति नजाति छुई । कछु वै कहत कछू कहि आवत प्रेमपुलकि श्रमसेदचुई । सूखति सूर धान अंकुरसी विनु वरपा ज्यों मूलतुई ॥३४॥ धनाश्री । सुनरी सखी दशा यह मेरी। जवते मिले श्याम घन सुंदर संगहि फिरति भई जनु चेरी ॥ नीके दरश देत नहिं मोकों अंगनप्रति अनंगकी टेरी । चपलाते अतिही चंचलता दशन चमक चकचोधि बनेरी ॥ चमकतअंग पीतपट चमकत चमकति माला मोतिनकेरी । सूर समुझि विधिनाकी करनी अतिरिस करति सौंह मुँह तेरी ॥३५||मारू। आजुके दिनको सखी आति नहीं नौलाख लोचन अंग अंग होते । पूरति साथ मेरे हृदय माँझ देखत सबै छवि श्याम कोते ॥ चित्तलोभी नैन द्वार अतिही सूक्ष्म कहा वह सिंधु छबिहे अगाधा। रोम जितने अंग नैन होते संग रूप लेती निदीर कहति राधा ॥ श्रवन सुनि सुनि दहै रूप कैसे लहे नैन कछु गहै रसनान ताके । देखि कोउरहै कोउ सुनि रहै जीभ विन सो कहै कहा नहिं नेन जाके ॥ अंग विनुहै सवै नहीं एकौ फवे सुनत देखत जवे कहन लोरे । कहें रसना सुनत श्रवन देखत नैन सूर सबभेद गुनि मनहिं तोरे ॥ ३६॥ धनाश्री ॥ इनहुँमे घटिताई कीन्ही । रसना श्रवन नैनके होते की रसनाहीको नहिं दीन्ही ॥ वैर कियो विधना हमको राचे याकी जाति अवै हम चीन्ही|निठुर निर्दयीयाते औरन श्याम वैर हमसोहै लीन्हीयारसहीमें मगन राधिका चतुरसखी तवही लखि भीनी । सूरझ्यामके रंगहि राची टरत नहीं जलते ज्यों मीन्ही ॥ ३७ ॥ सोरट धन्य धन्य बडभागिनि राधा । नीके भनीनंदनंदनको मटि भवन जन वाधा । नवल श्याम नवला. तुमहूं हो दोउ तुम.रूप अगाधा । मैं जानी यह वात हृदयकी रही नहीं कछु साधा। संगहि रहति सदा पियप्यारी क्रीडत करति उपाधा।कोककला वितपन्न भइही कान्हरूप तनु आधा | प्रेम उमंगि तेरे मुख प्रगट्यो अरस परस अवलाधा।सूरदास प्रभु मिले कृपाकरि गये दुरति दुखदाधा ॥३८॥ धनाश्री कहि राधिका वात अब सांची।तुम अब प्रगट कही मो आगे श्यामप्रेमरस मांची।तुमको कहां मिले नँद नंदन जब उनके रंगराची। सरिक मिलेकी गोरस वेचत की विपहरते यांची ॥ कहे वनै छाडो चतुराई बात नहीं यह काची । सूरदास. राधिका सयानी रूपराशि रस साची ॥३९॥ गौरी ।। कवरी मिले श्याम नहिं जानो । तेरीसों कहि कहत सखीरी अवहूं नहिं पहिचानो।खरिक मिलेकी गोरस बेचत की अवही की कालि । नैननि अंतर होत न कवहूं कहति कहारी आलि ॥ येको पल हरि होत नन्यारे नीके देखे नाहीं। सूरदास प्रभु टरत न टारे नैननि सदा वसाहीं ॥ ४ ॥ ॥ विलावल ॥ श्याममिले मोहिं ऐसे माई । मैं जलको यमुनातट आई ॥ औचक आये-तहां कन्हाई देखतहीमोहनी लगाई ॥ तवहीते तनुसुरतिगवाई। सूघे मारगगई भुलाई ॥ विन देखे.कल परे नमाई। सुरश्याम मोहनी लगाई॥४१॥ तवहीते हरि हाथ विकानी । देह गेह सुधि सबै भुलानी ।। अंगसि थिल फई जैसे पानी।ज्यों त्यों करि गृह पहुँची आनी ॥ वोले तहां अचानक पानी । द्वारे देखे श्याम विनानी ।। कहाकहाँ मुनि सखी सयानी । सुर श्याम ऐसी मति ठानी।॥ १२ ॥ धनाश्री । जादिनते हरि दृष्टि परेरी । तादिनते इनि मेरे नैननि दुख सुख सब विसरेरी ॥ मोहन अंग गोपाललाल के प्रेम पियूप भरेरी । धसे यहां मुसुकानि बाहुले रचि रुचि भवन करेरी ॥