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(२७८) । सुरसागर। अयानी काम परयो सब जोसों ॥ ७ ॥ कान्हरो ॥ कहा काहूको दोष लगावै । निमिपौ कहा कहति कहो विधिसों कहा नैननि पछितावै ॥ श्याम हितू कैसे करि जानति औरौ निठुर कहावे । क्षणमें और और अंग सोभा जो ए देखन पावे ॥ जवहीं एकटक. करि अवलोकत तवही वैझलकावै । सुरश्यामके चरित लखैको एई वैर बढ़ावै ॥ ८॥ नट | लहनी करम के पाछे। दियो आपनों लहै सोई मिलै नहिं पाछे । प्रगटहीहैं श्याम ठगढे कौन अंग केहि रूप। लह्यो काहू कहो मोसों श्यामहै ठगभूप ॥ प्रेम जावक धनी हरिसे नैन पुट कह लेहि । अमृत सिंधु हिलोरि पूरण कृपा दरशन देहि॥ पाइ ऐसोई सखीरी लिखो जितनो भाल। सूर उत कछु कमी नाहीं छवि समुद्र गोपाल ॥९॥ सुहीविलावल ॥ देख सखी अधरनकी लाली । मणि मरकतते सुभग कलेवर ऐसेहैं वनमाली ॥ मनो प्रातकी घटा सांवरी तापर अरुन प्रकाश। ज्यों दामिनि विच चमकि रहतहै फहरत पीत सवास ॥ कीधों तरुन तमाल वेलि चढि युग फलबिंब सुपाक्यो । नासा कीर आय मनों बैठो.लेत वनत नहिं ताक्यो । हँसत दशन एक सोभा उपजत उपमा यदपि लजाइ । मनों नीलमणि पुट मुकुतागन वंदन भरि वगराइ ॥ किधौं वत्रकन लाल नगनि खचि तापर विद्रुम पांति । किधौ सुभग बंधूप कुसुमपर झलकत जलकन कांति ॥ किधौं अरुण अंबुज विच बैठी सुंदरताई आई।सूर अरुण अधरनकी सोभा वर्णत वरनिनजाई१० धनाश्री ॥ श्यामरूप देखनकी साध मेरी माई। कितनो पचिहारिरही देत नाहिं दिखाई॥ मनतौनि रखत सुअंग में रही भुलाई । मोसों यह भेद कहौ कैसे बहि पाई ॥ आपुन अंग अंग विधो मोको विसराई । बार बार कहत इहै तू क्यों नहिआई ॥ अवहूं लैजात साध वाहि बोले लाई । सूरश्याम छवि आगाध निरखत भरमाई ॥ ११ ॥ विलावल ॥ सुनहु सखी मैं बूझति तुमको काहू हरिको देखेहै । कैसो तन कैसो रंग देखियत कैसी विधि करि भेषेहै ॥ कैसो मुकुट कुटिल कच कैसे सुभग भाल ध्रुव नीकेहैं कैसे नैन नाशिका कैसी श्रवणनि कुंडल पीके हैं।। कैसे अधर दशन दुति कैसी चुबुक चारु चित चोरतहै । कैसे निरखि हँसत काहू तन कैसे बदन सकोरतहैं । कैसो उरमालाहै सोभित कैसी भुजा विराजतहै । कैसे कर पहुँचीहै कैसी अँगुरिआ राजतहै ।। कैसी रोमावली श्यामके नाभि चारु कटि सुनियतहै। कैसी कनक मेखला कैसी कछनी यह मन गुनियतहै ॥ कैसे जंव जानु कैसे दोउ कैसे वदन खजानतिहै । सूरश्याम अंग अंगकी सोभा देखेको अनुमानतिहै ॥ १२ ॥ रामकली ॥ ऐसे सुने नंदकुमार । नख निरखि शशि कोटिं वारत चरण कमल अपार ॥ जानु जंघ निहारि रंभा करनि डारत वारि । काछनी पर प्राण वारतं देखि सोभाभार ॥ कटिनिराख तनु सिंह वारत किंकिनी मराल । नाभि पर हृद आपु वारतं रोमावलि अलिमाल ॥ हृदय मुकुतामाल निरखतवारिअवलि वलाक । करज कर पर कमलवारत चलति जहां तहां साक। भुजा पर वर नाग वारत गये भागि पताल । ग्रीवकी उपमा नहीं करें लखति परम रसाल॥ चिवुकपर चित वारि हारत अधर अंबुज लाला बंधूप विद्रुम विव वारत ते भये वेहाल ।। वचन सुनि कोकिलावारत दशन दामिनि कांति । नाशिकापर कीर वारत चारु लोचन भांति। कंज खंजन मीन मृग सावकनिडारति वार । भ्रुकुटि पर सुर चाप वारत तरनि कुंडल हारि ॥ अलक पर वारत अँध्यारी तिलक भाल सुदेस। सूर प्रभु शिर मुकुटधारे धरे नटवर भेष ॥ १३ ॥ सारंग ॥ ऐसी विधि नंदलाल कहत सुने माईरी। देखे जो नैन रोम रोम प्रति सुभा ईरी ॥ विधिनेद्वै नैन रचे अंग ठानि ठान्यो । लोचन नहिं बहुत दिये जानिकै भुलान्यो ॥ चतुरता