पहिचानी हमभई अंत गँवारि॥६३॥ गुंडमलार ॥ धन्य राधा धन्य बुद्धि हेरी। धन्यमाता धन्य पिता धन्य भगति तुव धृग हमहि नहीं सम दासी तेरी॥ धन्य तुव ज्ञान धन्य ध्यान धनि परमान नहीं जानति आन ब्रह्मरूपी। अन्य अनुराग धनि भाग धनि सौभाग धन्य जो वनरूप अति अनूपी॥ हम विसुख तुम सुमुख कृष्ण प्यारी सदा निगम मुखसहस स्तुति बखाने। सूरश्यामा श्याम नवल जोरी अटल तुमहिं विन कान्ह धीरजन औन॥६४॥ विहागरो ॥ जैसे कहै श्यामहैं तैसे। कृष्णरूप अवलोकनको सखि नयन होहिंजो ऐसे॥ तैं जो कहति लोचन भरि आये श्यामकियो तेहि ठौर। पुण्यस्थली जानि बिराजे बात न हियहै और॥ तेरे नयन बास हरि कीन्हो राधा आधा जानि। सुरश्याम नटवर वषु काछे निकसे वहि मगआनि॥६५॥ कान्हरो ॥ अचानक आइगए तहाँ श्याम। कृष्णकथा सब कहत परस्पर राधा संग मिली ब्रजबाम॥ मुरली अधर धरे नटवर वषु काट कछनी परवारौं काम। सुभग मोरचंद्रिका शीश पर आइ गए पूरण सुखधाम॥ तरुतमाल तरुतरुन कन्हाई दूरि करन युवतिन तनु ताम। सूरश्याम बंशी ध्वनि पूरत श्रीराधा राधा लै नाम॥६६॥ सूही विलावल ॥ थकितभई राधा ब्रजनारि। जो मन ध्यान करति अवलोकन ते अंतर्यामी वनवारि॥ रतनजरितपग सुभग पाँवरी नूपुरध्वनि कल परम रसाल। मानहु चरण कमलदल लोभी निकटहि वैठे बाल मराल॥ युगलजंघ मरकतमाणिसोभा विपरीति भांति सँवारे। कटिकाछनीकनक छुद्रावलि पहिरे नंददुलारे॥ हृदय बिसाल माल मोतिनविच कौस्तुभमणि अतिभ्राजत। मानहु नभ निर्मल तारागन तामधि चंद्र बिराजत॥ दुहुँकर मुराले अधर परसाये मोहन राग बजावत॥ चमकत दशन मटकि नाशापुट लटकि नयन मुख गावत॥ कुंडल झलक कपोलनि मानहुँ मीनसुधा सर कीडत। भ्रुकुटी धनुषनैन खंजन मानो उडत नहीं मन ब्रीडत॥ देखिरूप ब्रजनारि थकितभई कीट मुकुट शिर सोहत।
ऐसे सूरश्याम सोभानिधि गोपी जन मन मोहत॥६७॥ कल्याण ॥ जबते निरखे चारु कपोल। तबते लोकलाज सुधि विसरी दैराखेमनबोल॥ निकसे आनि अचानक तिरछे पहिरे नील निचोल। रतन जरित शिरमुकुट बिराजत मणिमय कुंडल लोल॥ कहा करौं वारिज मुख ऊपर विथके षट पदजोल। सूरश्याम करिये उत्कर्षा वशकीन्ही विनमोल॥६८॥ पूरवी ॥ चारु चितौनि चंचलडोल। कही नजाति मनमें अति भावति कछु जो एक उपजत गतिगोल॥ मुरली मधुर बजावत गावत चलत करजु अरु कुंडललोल। सब छवि मिलि प्रतिविंब बिराजत इंद्रनीलमणिमुकुर कपोल॥
कुंचितकेश सुगंध सुवसु मनु उड़िआए मधुपनके टोल। सूर सुभगनासिका मनोहर अनुमानत अनुराग अमोल॥६९॥ गौरी ॥ नंदनंदन वृंदावन चंद। यदुकुल नभ तिथि द्वितिय देवकी प्रगटे त्रिभुवन वंद॥ जठर कहूते बहरि वारिनिधि दिशिमधुपुरी सुछंद। वसुदेव शंभु शीश धरि आने गोकुल आनँदकंद॥ ब्रजप्राची राका तिथि यशुमति शरद सरस ऋतुनंद। उडुगन सकल शाखा संकर्षन तम दनुकुल योनिकंद॥ गोपीजन तेहि धरति चकोर गति निरखि मेटि पल द्वद। सूर सुदेश कला पोडश पर पूरन परमानंद॥७०॥ गौरी ॥ देखि सखी हरिको मुखचारु। मनहु छिडाइलिये नँदनंदन वा शशिको सतसारु॥ रूप तिलक कच कुटिल किरनि छवि कुंडल कल विस्तारु। पत्रावलि पारवेष सुमन सरि मिल्यो मनहु उडदारु॥ नयनचकोर विहंग सूर सुनि पिवत न पावत पारु। अब अंबर ऐसो लागत है जैसो झुठो थारु॥७१॥ कान्हरो ॥ देखिरी हरिके चंचलतारे। कमल मीनको कहा एती छवि खंजनहू न जात अनुहारे॥ वै देखि निरखि नमित
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सूरसागर।