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दशमस्कन्ध-१०


तड़ाग। नाशा तिलक प्रसून पद विपर चिबुक चारु चित खाग। दाड़िम दशन मंदगति मुसकनि मोहत सुर नर नाग॥ श्री गोपाल रस रूप भरीहै सूर सनेह सोहाग। ऐसी सोभा सिंधु विलोकत इन अँखियनके भाग॥५३॥ धनाश्री ॥ हम देखे यहि भांति गोपाल। छंद कपट कछ जानति नाही सूधीहैं ब्रजकी सब बाला॥ झूठीकी सांची नहिं भाषैं सांची झूठी कबहुँ नहोइ। सांचीकी झूठी करिडारै यह सोई जानैं धनि जोइ॥ इतननिमें दुराव कछु नाहीं भेदाभेद विचार। सूरदासते झूठी मिलवै तनुकी गति जानै करतार॥५४॥ आसावरी ॥ झुठीबात नहोति भलाई। चोर जुआ रसंग बरु करिये झूठेको नहिं कोउ पतिआई॥ सांचीकी झूठी करिडारैं पंचनमें मर्यादा जाई। बोलि उठी एक सखी बीचहीतैं कह जानैं लाज बड़ाई। यामें कछू नफाहै उनको जाते मन ऐसी ये भाई। सूर स्वभाउ परयो ऐसोई को जानैरी बुद्धि पराई॥५५॥ धनाश्री ॥ ऐसे हम देखे नँदनंदन। श्याम सुभग तनु पीत वसन जनु मनहु जलद पर तडित सुछंदन॥ मंदमंद मुरली मुख गरजनि सुधावृष्टि वरषत आनंदन। विविध सुमन वनमाला उर मनु सुरपति धनुष नहीं यहिछंदन॥ मुक्तावली मनहुँ वगपंगति सुभग अंग चरचित छवि चंदन। सूरप्रभूनीप तरोवर तर ठाढ़े सुर नर मुनि वंदना॥५६॥ देवगंधार ॥ तुमको कैसे श्याम लगे। न्हातरही जलमें सब तरुनी तब तुअ नैना कहां खगे॥ अंग अंग अवलोकन कीन्हो कौन अंग पर रहे पगे। भूल्योस्नान ज्ञान तनु भूली नंदसुवन उतते नडगे॥ जानति नहीं कहूंनहिं देखे मिलिगई ऐसे मनहि सगे। सूरश्याम ऐसे तैं देखे मैं जानति दुख दूरि भगे॥५७॥ गौरी ॥ तुम देखे मैं नहीं पत्यानी। मैं जानति मेरी गति सबही इहै सांच अपने मन आनी॥ जो तुम अंग अंग अवलोक्यो धन्य धन्य मुख स्तुति गानी। मैं तौ अंग अंग अवलोकात दोऊ नयन भये भर पानी॥ कुंडल, झलक कपोलनि आभा इतनहि माँझ बिकानी। एकटकरही नैन दोउ रुंधे सूरश्यामको नहिं पहिचानी॥५८॥ नट ॥ मेरी अखियां अजान भई। एक अंग अवलोकत हरिके औरै अंग रई॥ ये भूली ज्यों चोर भरे पर नौनिधि नहीं लई। फेरत पलटत भोर भए कछु लई न छांडिदई। पहिलेहि रति करिकै आरति करि ताहि रई। सूर सकति हाठि दोष लगावति पल पल पीर नई॥५९॥ सारंग ॥ विधातहि चूकपरी में जानी। आजु गोविंदहि देखि देखि होइहै समुझि पछितानी॥ रचि पचि सोचि सँवारि सकल अंग चतुर चतुरई ठानी। दृष्टि नदई रोमरोमनि प्रति इतनहि कला नशानी॥ कहाकरौं अति सूवै नयना उमगि चलत पग पानी। सूर सुमेर समाइ कहाँधौं बुद्धिवासना पुरानी॥६०॥ धनाश्री ॥ द्वैलोचन तुह्मरे द्वै मेरे। तुमप्रतिअंग विलोकन कीन्हो मैं भई मगन एक अंग हेरे॥ अपनो अपनो भाग्य सखीरी तुम तनमय मैं कहूँ ननेरे। जो बुनिये सोई पनिलुनिये और नहीं त्रिभुवन भट मेरे॥ श्यामरूप अवगाहि सिंधुते पारहोत चढि डोगन केरे। सूरदास तैसे ए लोचन कृपा जहाज बिनाको परे॥६१॥ आसावरी ॥ पावै कौन लिखे बिनभाल। काहूको पटरस नहिं भावत कोऊ भोजन कहुँ फिरत विहाल॥ तुम देख्यो हरि अंग माधुरी मैं नाह देख्यो कौन गोपाल। जैसेरंक तनक धन पाए ताहि महा वह होत निहाला॥ तुमहि मोहि इतनो अंतरहै धन्य धन्य ब्रजकी तुम बाल। सूरदास प्रभुकी तुम संगनि तुमहि मिले यह दरश गोपाल॥॥६२॥ कल्याण ॥ सुनहु सखी राधाकी वानी। हमको धन्य कहति आपुन धृग यह निर्मल अतिजानी॥ आपुन रंक भई हरिधनको हमहि कहति धनवंत। यह पूरण हम निपट अधूरी हम असंत यह संत॥ धृग धृग हम धृग बुद्धि हमारी धन्य राधिका नारि। सूरश्यामको एहि