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सूरसागर।


होहु सहाइ। ऐसी कहौं बात इन आगे मेरी पति जिन जाइ॥ तब यक बुद्धि रची मनही मन अति आनंद हुलास। सूरश्याम राधा आधातन कीन्हो बुद्धि प्रकाश॥४४॥ गूजरी ॥ राधा चलन भवनही जाहि। कबहि की हम यमुना आई कहहिं अरु पछिताहि॥ कियो दरशन श्यामको तुम चलोगीकी नाहि। बहुरि मिलिहो चीन्हि राखहु कहतिं सब मुसकाहि॥ हम चली घर तुमहुँ आवहु सोच भयो मन माहि। सूर राधा सहित गोपी चलीं ब्रज समुहाहि॥४५॥ विलावल ॥ कहि राधा हरि कैसेहैं। तेरे मन भायेकी नाहीं की सुंदरकी नैसेहैं। की पुनि हमहि दुरावकरोगी की कैहौ वैजैसे हैं। की हम तुमसों कहत रही ज्यों सांच कहौ की तैसेहैं॥ नटवर भेष काछनी काछे अंगनि रातिपाति सैसेहैं। सूरश्याम तुम नकि देखे हम जानति हरि ऐसेहैं॥४६॥ राधामनमें इहे विचारति। ये सब मेरे ख्याल परीहैं अबही बातनलै निरुवारति॥ मोहूते ये चतुर कहावति ये मनहीमन मोको नारति। ऐसे वचन कहौंगी इनको चतुराई इन की मैं झारति॥ जाके नंद नँदन शिरसमरथ वार वार तनु मन धन वारति। सूरश्यामके गर्व राधिका सूधे काहू तन न निहाराति॥४७॥ सूही ॥ राधा हरिके गर्व गहीली। मंद मंद गति मत्त मतंगज्यों अंग अंग सुख पुंज भरीली॥ पगद्वै चलति ठटकि रहै ठाढी मौन धरे हरिके रसगीली॥ धरनी नख चरननि कुरवारति सौतिन भाग सुहाग डहीली॥ नेकनहीं पियते कहुँविछुरति ताते नाहिन काम दहीली। सूरसखी बूझै यह कैहों आज भई इह भेद पहीली॥४८॥ आसावरी ॥ क्यों राधा फिरि मौन धरचोरी। जैसे नउआ अंध झेवखर तैसोहि तैं यह मौन कह्योरी॥ बातनहीं मुखते कहि आवति को तेरो मन श्याम हरचोरी। जानि नहीं पहिचानि न कँबहू देखतही चित तिनहि ठरचोरी॥ साँची बात कहौं तुम हमसों कहा सोच सो जियहि परयोरी। सूरश्याम तन देखि रही कहा लोचन इकटक ते नटरयोरी ॥४९॥ धनाश्री ॥ कहा कहति तुम बात अलेखे। मोसों कहति श्याम तुम देखे तुम नीके करिदेखो॥ कैसो वरन भेषहै कैसो कैसे अंग त्रिभंग। मो आगे वह भेद कहौ धौकि सोहैं तनु रंग मैंदेखें कीनाही देखे तुमतो वारहजार। सूरश्याम द्वै अँखियन देखति जाको वार नपार॥५०॥ कान्हरो ॥ हम देखे यहि भाँति कन्हाई। शीश श्रीखंड अलक विथुरे मुख श्रवननि कुंडल चारु सोहाई॥ कुटिल भ्रुकुटि लोचन अनियारे सुभग नासिका राजत। अरुन अधर दशनावलिकी द्दुति दारिम कन तन लाजत॥ ग्रीवहारमुक्ता वनमाला बाहुदंड गजशुंड। रोमावली सुभग वगपंगति जात नाभि हृदय झुंड॥ कटि पटपीत मेखला कंचन सुभग जंघ युग जान। चरन कमल नखचंद्र नहीं सम ऐसे सुर सुजान॥५१॥ बिलावल ॥ बनेहैं विसाल कमल दल नैन। ताहूमें अति चारु विलोकनि गूढभाव सूचत सखिसैन॥ वदन सरोज निकट कुंचित कच मनहु मधुपआए मधुलैन। तिलक तरनि शशि कहत कछुक हँसि बोलत मधुर मनोहर बैन॥ मदननृपतिको देश महामद बुधि बल बसि न सकत उर चैन। सूरदास प्रभु दूत दिनहि दिन पठवत चरित चुनौती दैन॥५२॥ देवगंधार ॥ मोहन बदन विलोकत अँखियन उपजतहै अनुराग। तरनिताप तलफति चकोरगति पिवत पियूष पराग॥ लोचन नलिन नये राजत रति पूरण मधुकर भाग। मानहु आले आनंद मिले मकरंद पिबत रतिफाग॥ भँवरिभाग भ्रुकुटी पर कुमकुम चंदनविंदु विभाग।चातक सोम शक्र धनु घनमें निरखत मनु वैराग॥ कुंचित केश मयूर चद्रिका मंडल सुमन सुपाग। मानहु मदन धनुष शर लीन्हे बरषतहै बन बाग॥ अधरबिंब विहँसान मनोहर मोहन मुरली राग। मानहु सुधा पयोधि घेरि धन ब्रजपर वरषन लाग॥ कुंडल मकर कपोलनि झलकतश्रमसी करके दाग। मानहुँ मीन मकर मिलि कीडत सोभित शरद