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(२६६) सूरसागर। राधिका महिमाको जानै यहि केरी॥६९॥ कल्याण||तुमसों कछु दुरावहै मेरो।कहां कान्ह कहां में सुनि । सजनी व्रज पर घर यह चलतहै घेरो। और कहत सव मोहिं न व्यापै तुमहुँ कही यह बानीआदर नहीं कियो याहीते तुमपर अतिहि रिसानी ॥ हमतौ नहीं कह्यो कछु तोसों ताही पर रिस करती। सर तवहिं हमसों जो कहती तेरी पां है लरती॥ ७० ॥ रामकली ॥ सखीतू राधहि दोप लगावति। तैरी श्याम कहां ए देखे वातन वैर बढ़ावति ॥ हम आगे झूठी नहिं कैहै सखियन सैन बतावति । ऐसीवात अरी मुख तेरे कैसी धौं कहि आवति ॥ भेदहि भेद कहतिहै वाते ऐसे मनहि जनावति । सुरश्यामते देखनाही कीधौं हमहि दुरावति ॥ ७१ ॥ नटनारायण ॥काको काको मुख माई बात नको गहिये । पांचकी सात लगायो झूठी झूठीकै बनायो सांची जो तनक होइ तौलौं सब सहिये। वातनि गहौ अकास सुनत न आवै सांस बोलि तो कछु न आवै ताते मौन गहिये । ऐसे कहै नर नारि विना चित्र भीति कारि काहेको देखे मैं कान्ह कहा कहौ सहिये। घर घर इहै घेर वृथा मोसों करै वैर यह सुनि श्रवणनि हृदय सहि दहिये । सूरदास वरु उपहास सहौई सुर मेरे नंदसुवन मिलैं तो कहा चहियै ॥ ७२ ॥ गुंडमलार ॥ दुरत नहिं नेह अरु सुगंध चोरी । कहा कोऊ कहै तू सुनातिकाहेनरहै तनहिं कत दहै सुनि सीख मोरी लोगतोहि कहत हैं पाप को गहत, कहाधौं लह तहैं सुनहु भोरी । खरिकहू नहिं मिलै कहै कह अनभले करनदै गिले तू दिननि थोरी ॥ नंदको सुवन अरु सुता वृषभानुकी हँसत सब कहै चिरजीवै जोरी । सूर प्रभु कहां तू कहां वे अपने भव नमें लखी तोहि तोसी न वारी॥७३॥ विलावल ।। कैसेहैं नंदसुवन कन्हाई। देखे नहीं नयनभरि कबहूं ब्रजमें रहत सदाई ॥ सकुचतिहौं एकवात कहत तोहिं सो नहिं जात सुनाईं। कैसेहुँ मोहिं देखावहु उनको यह मेरे मन आई। अतिही सुंदर कहियत है वै मोकों देहि वताई। सूरदास राधाकी वाणी सुनत सखी भरमाई॥७४॥ धनाश्री । सुनहु सखी राधाकी बानी। ब्रजवसिहार देखे नहिं कवहूं लोग कहत कछु अकथ कहानी। ये अब कहति देखावह हरिको देख हुरी यह अकथ कहानी । जो हम सुनत रही सो नाहीं अब एसेहि यह बात वहानी ॥ ज्याव नदेत बनै काहूसों मनमें काहु नमानी। सूर सवै तरुणी सुखचाहत चतुर चतुरईठानी ॥७॥विलावल ।। सुनि राधे तोहि श्याम देखा।जहां तहां ब्रजगलिन फिरतहै जवहीं वे यहि मारग आवें।।जवहीं हम उनको देखेंगी तहाई तोहिं बोलेहैं । उनहूंके लालसा बहुत यह तो देखे सुख पैहैं ॥ दरशनते धीरज जवरैहै तब हम तोहिं पतैहैं। तुमको देखि श्याम सुंदर घन मुरली मधुर व हैं। तनु त्रिभंग करि अंग अंगमो नाना भाउ जनैहैं । सूरदास प्रभु नवल कान्हवर पीतांवर फहरैहैं ॥ ७६ ॥ गुंडमलार ॥ नंदनंदन दरशन जब पैहो । येक द्वै तीनि तजि चारि पानी पांच छहानिदार तबहिं सातै भुलैहो । आठहूं गाँठि परिहै नवहु दशदिशा भूलिहौ ग्यारहो रुद्रजैसे । वारहौ कला ते तपनि तपते मिटत तेरहो रतन मुख छबिन तैसे ॥ निपुन चौदह वरन पंद्रहौ सुभग आति वरष पोडश सतर होन है । जपत अठारहो. भेद उनईस नहिं वीसह विसौ तै सुखहि पैहै ।। नैनभरि देखि जीवन सफल करि लेखि ब्रजहि में र हति नैं नहीं जाने। सूरप्रभु चतुर तुमहू महाचतुरंहो जैसे तुम तैसे वोऊ सयाने।।७७देवगंधारमा मन मन हँसति राधिका गोरी। ऐसे श्याम रहत ब्रजभीतर वझतिहै भैभोरी ॥ तुम उनको कहुँ नहि देखेहैं की सुनी कहतिही वात । चतुराई नीके गहि राखी कहत सखी मुसिकात ॥ कवहूतौ काहू फंग परिहौ तवहीं लीजौ चीन्हि । सरश्याम को पीतांवर वेसरि लीजो मेरी छीनि ॥ नट||७|यह सुनि हँसि चली व्रजनारि । अतिहि आई गर्वकीन्हे गई घर झखमारि ॥ कवहुँ तो हम देखिहें ।