राधिका महिमाको जानै यहि केरी॥६९॥ कल्याण ॥तुमसों कछु दुरावहै मेरो। कहां कान्ह कहां मैं सुनि सजनी ब्रज घर घर यह चलतहै घेरो॥ और कहत सब मोहिं न व्यापै तुमहुँ कहौ यह बानी। आदर
नहीं कियो याहीते तुमपर अतिहि रिसानी॥ हमतौ नहीं कह्यो कछु तोसों ताही पर रिस करती। सर तबहिं हमसों जो कहती तेरी घां ह्वै लरती॥७०॥ रामकली ॥ सखी तू राधहि दोष लगावति। तैरी श्याम कहां ए देखे बातन बैर बढ़ावति॥ हम आगे झूठी नहिं कैहै सखियन सैन बतावति। ऐसीबात अरी मुख तेरे कैसी धौं कहि आवति॥ भेदहि भेद कहतिहै बातैं ऐसे मनहि जनावति। सुरश्यामतैं देखनाहीं कीधौं हमहि दुरावति॥७१॥ नटनारायण ॥ काको काको मुख माई बातनको गहिये। पांचकी सात लगायो झूंठी झूंठीकै बनायो सांची जो तनक होइ तौलौं सब सहिये॥ बातनि गहौ अकास सुनत न आवै सांस बोलि तौ कछु न आवै ताते मौन गहिये। ऐसे कहै नर नारि विना चित्र भीति कारि काहेको देखे मैं कान्ह कहा कहौ सहियै॥ घर घर इहै घेर वृथा मोसों करै बैर यह सुनि श्रवणनि हृदय सहि दहिये। सूरदास वरु उपहास सहौई सुर मेरे नंदसुवन मिलैं तोपै कहा चहियै॥७२॥ गुंडमलार ॥ दुरत नहिं नेह अरु सुगंध चोरी। कहा कोऊ कहै तू सुनातिकाहेनरहै तनहिं कत दहै सुनि सीख मोरी॥ लोगतोहि कहत हैं पाप को गहतहैं कहाधौं लहतहैं सुनहु भोरी। खरिकहू नहिं मिलै कहै कह अनभले करनदै गिले तू दिननि थोरी॥ नंदको सुवन अरु सुता वृषभानुकी हँसत सब कहै चिरजीवै जोरी। सूर प्रभु कहां तू कहां वे अपने भव
नमें लखी तोहि तोसी न वारी॥७३॥ विलावल ॥ कैसेहैं नंदसुवन कन्हाई। देखे नहीं नयनभरि कबहूं ब्रजमें रहत सदाई॥ सकुचतिहौं एकबात कहत तोहिं सो नहिं जात सुनाईं। कैसेहुँ मोहिं देखावहु उनको यह मेरे मन आई॥ अतिही सुंदर कहियत है वै मोकों देहि बताई। सूरदास राधाकी वाणी सुनत सखी भरमाई॥७४॥ धनाश्री ॥ सुनहु सखी राधाकी बानी। ब्रजवसिहार देखे नहिं कवहूं लोग कहत कछु अकथ कहानी॥ ये अब कहति देखावहु हरिको देख हुरी यह अकथ कहानी। जो हम सुनत रही सो नाहीं अब एऐसेहि यह बात वहानी॥ ज्वाब नदेत बनै काहूसों मनमें काहु नमानी। सूर सबै तरुणी सुखचाहत चतुर चतुरईठानी॥७५॥ विलावल ॥ सुनि राधे तोहिं श्याम देखावैं। जहां तहां ब्रजगलिन फिरतहै जबहीं वे यहि मारग आवें॥ जबहीं हम उनको देखैंगी तहांई तोहिं बोलैहैं।
उनहूंके लालसा बहुत यह तो देखे सुख पैहैं॥ दरशनते धीरज जवरैहै तब हम तोहिं पतैहैं। तुमको देखि श्याम सुंदर घन मुरली मधुर बजैहैं॥ तनु त्रिभंग करि अंग अंगमो नाना भाउ जनैहैं। सूरदास प्रभु नवल कान्हवर पीतांबर फहरैहैं॥ ७६॥ गुंडमलार ॥ नंदनंदन दरशन जब पैहो। येक द्वै तीनि तजि चारि वानी पांच छहानिदार तबहिं सातै भुलैहो॥ आठहूं गाँठि परिहै नवहु दशदिशा भूलिहौ ग्यारहो रुद्रजैसे। बारहौ कला ते तपनि तपते मिटत तेरहो रतन मुख छबिन तैसे॥ निपुन चौदह वरन पंद्रहौ सुभग आति वरष षोडश सतर होन है। जपत अठारहौ भेद उनईस नहिं वीसहू विसौ तै सुखहि पैहै॥ नैनभरि देखि जीवन सफल करि लेखि ब्रजहि में रहति तैं नहीं जाने। सूरप्रभु चतुर तुमहू महाचतुरंहो जैसे तुम तैसे वोऊ सयाने॥७७॥ देवगंधार ॥ मन मन हँसति राधिका गोरी। ऐसे श्याम रहत ब्रजभीतर बूझतिहै भैभोरी॥ तुम उनको कहुँ नहिं देखेहैं की सुनी कहतिहौ बात। चतुराई नीके गहि राखी कहत सखी मुसिकात॥ कवहूंतौ काहू फंग परिहौ तबहीं लीजौ चीन्हि। सरश्याम को पीतांबर वेसरि लीजौ मेरी छीनि॥ नट ॥७८॥ यह सुनि हँसि चलीं ब्रजनारि। अतिहि आई गर्वकीन्हे गई घर झखमारि॥ कबहुँ तो हम देखिहैं
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सूरसागर।