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दशमस्कन्ध-१०


चलावत घरघर श्रवण सुनत जिय खुनसों॥ भैनी मात पिता बंधव गुरु गुरु जन यह कहैं मोसों राधा कान्ह एक संग विलसत मनहींमन अपसोसों॥ कबहुँक कहौं सबनि परित्यागों बूझतिहौं अब गोसों। सुरश्याम दरशन विन पाये नयन देत मोहिं दोसों॥२०॥ रामकली ॥ बात यह तुमसों कहत लजाउँ। सुनि न जात घर घरको घेरा काहू मुख न समाउँ॥ नर नारी सब इहै चलावत राधा मोहन येकल। मात पिता सुनि सुनि अतित्रासत मैं येकै वे अनेक॥ आपु जबहि द्वारेह्वै निकसत देखत सबै सुगात। निंदति तुमहि सुनावति मोको सुनत ननेक सोहात॥ धृग नर धृग नारी धृगजीवन तुमहि विमुख धृग देह। सूरश्याम यह कोऊ नजानत तनुह्वैहै जरिखेहा॥२१॥ गूजरी ॥ श्याम यह तुमसों क्यों न कहौं। जहाँ तहाँ घरघरको घेरा कौनी भांति सहौं। पिता कोपि करवार लेत कर बंधु वधनको धावै। मात कहै कन्या कुलको दुख जनि कोऊ जग जावै॥ विनती एक करौं करजोरे यहि वीथिनि जिनिआवै। ये जन आपुनको जानत हैं ते जन जन्म नपावै॥ मन कर्म वचन कहतिहौं सांची मैं मन तुमहि लगायो। सूरदास प्रभु अंतर्यामी क्यों नकरहु मनभायो॥२२॥ रामकली ॥ हँसि बोले गिरिधर रसबानी। गुरुजन खिझत कतहि रिसपावति काहेको पछितानी॥ देहधरेको धर्म इहैहै सजन कुटुंब गृहप्रानी। कहन देहु कहि कहा करैंगे अपनी सुरति हिरानी॥ लोकलाज काहेको छाँडति ब्रजही वसे भुलानी। सूरदास घट ह्वैद्वैकरि मन ये भेद नहीं कछुजानी॥२३॥ जयतश्री ॥ ब्रजवसि काके बोल सहों। तुम बिन श्याम और नहिं जानों सकुचनि तुमहि कहौं॥ कुलकी कानि कहालौं करिहौं तुमको कहां लहौं। धृग माता धृग पिता विमुख तुव भावै तहां वहौं॥ कोऊ करै कहै कछु कोऊ हरष नसोक गहौं। सूरश्याम तुमको विनु देखे तन मन जीव दहौं॥२४॥ ब्रजहि वसे आपुहि विसरायो। प्रकृति पुरुष एकै करि जानहु वातनि भेद करायो॥ जल थल जहां रहो तुम विनु नहिं भेद उपनिषद गायो। द्वैतनु जीभ एक हम तुम दोऊ सुख कारण उपजायो॥ ब्रह्मरूप द्वितिया नहिं कोई तब मन त्रिया जनायो। सूरश्याम मुख देखिअल पहँसि आनँद पुंज बढायो॥२५॥ रामकली ॥ तब नागरि मन हरष भई। नेह पुरातन जानि श्यामको अति आनंदमई॥ प्रकृति पुरुष नारी पेपति काहे भूलि गई। को माता को पिता बंधु को यहतो भेटनई॥ जन्म जन्म युग युग यह लीला प्यारी जानि लई। सूरदास प्रभुकी यह महिमा याते विवस भई॥२६॥ सुही ॥ सुनहु श्याम मेरी इक विनती। तुमहरता तुम करता प्रभुजू मात पिता कौने गनती॥ गैवरभेटि चढावत रासभप्रभुता मेटि करतहिनती। अबलों करी लोक मर्यादा मानहु थोरहि दिनती॥ बहुरि बहुरि ब्रज जन्म लेतहौं इह लीला जानी किनती। सूरश्याम चरणनि ते मोको राखत रहै कहा मिनती॥२७॥ धनाश्री ॥ देह धरेको यह फल प्यारी। लोकलाज कुलकानि मानिये डरिये बंधु पिता महतारी॥ श्रीमुख कह्यो जाहु घर सुंदरि बड़े महर वृषभानुदुलारी। तुम अवसेर करत सबह्वैहै जाहु वेगि देहै पुनि गारी॥ हमहुँ जाहिं ब्रज तुमहु जाहु अब गेह नेह क्यों दीजै डारी। सूरदास प्रभु कहत प्रियासों नेक नही मोते तुम न्यारी॥२८॥ धनाश्री ॥ देह धरेको कारण सोई। लोक लाज कुलकानि न तजिये जाते भलो कहै सब कोई॥ मात पिताके डरको माने माने सजन कुटुंब सब लोई। तात मात मोहूको भावत तनुधरिकै मायावशहोई॥ सुनि वृषभानु सुता मेरीवानी प्रीति पुरातन राखहु गोई। सुरश्याम नागरिहि सुनावत मैं तुम एक नहीहो दोई॥२९॥ सारंग ॥ अब कैसे दूजै हाथ विकाऊं। मन मधुकर कीन्हो वा दिनते चरण कमल निज ठाऊं॥ जो जानों