चित जोरयो। लोकवेद तिनुकासोंतोरयो॥१२००॥ सखीरी श्यामसों मन मान्यो। नीकेकरि चित कमलनैनसों घालि एकठो सान्यो॥ लोकलाज उपहास नमान्यो मति अपनेही आन्यो। यागोविंदचंदके कारन वैर सबनिसों ठान्यो॥ अब क्यों जाति निवेरि सखीरी मिलो येक पय पान्यो। सूरदास प्रभु मेरी जीवनि है पहिली पहिचान्यो॥१॥ नंदलालसों मेरो मन मान्यो कहाकरैगो कोईरी। मैंतो चरण कमल लपटानी जो भावै सो होईरी॥ वाप रिसाइ माइ घरमारै हँसे विरानो लोगरी। अवतौ श्यामहिसों रतिवाढी विधिना रच्यो संयोगरी॥ जाति महति पति जाइ नमेरी अरु परसोक नशाईरी। गिरिधर वरमैं नैक नछाँडो मिली निसान बजाईरी॥ बहुरि कबहिं यह तनुधरि पैहौ कहा पुनि श्रीवनवारीरी। सूरदास स्वामीके ऊपर यह तनुडारौं वारीरी॥२॥ सारंग ॥ करनदै लोगनको उपहास। मन कर्म वचन नंदनंदनको नैक नछाँडौंपास॥ सबही या ब्रजके लोग
चिकनिया मेरे भाएघास। अबतो इहै वसीरी माई नहिं मानौंगी त्रास॥ कैसे रह्यो परैरी सजनी एकगाँवको वास। श्याम मिलनकी प्रीति सखीरी जानत सूरजदास ॥३॥ रामकली ॥ येक गाउँको वास धीरज कैसेकै धरौं। लोचन मधुप अटक नहिं मानत यद्यपि जतन करौं॥ वैयेहि मगनितप्रति आवतहैं हौं दधिले निकरौं। पुलकित रोम रोम गद गद सुर आनँद उमँगिभरौं॥ पल
अंतर चलिजात कलपवर विरहा अनल जरौं। सूर सकुच कुलकानि कहालगि आरजपंथहि डरौं॥४॥ मेरो मन हरि चितवनि अरुझानो। फेरत कमलद्वारह्वै निकसे करत श्रृंगारभुलानो॥ अरुन अधर दशननि द्युति राजति मोहन मुरि मुसकानों। उदधितनया सुत पांति कमलके महि वदन भुरके मानों॥ सुभग कपोल लोल मणिकुंडल इह उपमा केहि वानों। उभयअंक अति पान अमीरस मीन ग्रसतविधि भानों। यह रस मगन रहति निशिवासर हारि जीति नहिं जानो। सूरदास चितभग होत क्यों जो जेहिरूप समानो॥५॥ रामकली ॥ हों संग साँवरेके जैहौं। होनी होइ सो हावै अबहीं यश अपयश काहूं न डरैहों॥ कहा रिसाइ करै कोउ मेरो कछु जो कहै प्राणतेहि दैहों। देहौं त्यागि राखिहौं यह व्रत हार रति बीज बहुरि कबवैहौं॥ का यह सूर अजिर अवनी तनु तजि अगास पिय भवन समैहों। का यह ब्रजवापी क्रीडा जल भजि नँदनंद सबै सुख लैहौं॥६॥ धनाश्री ॥ तैं मेरे हित कहत सहीरी। यह मोको सुधि भली दिवाई तनु विसरे मैं बहुत वहीरी॥ जबते दान लियो हरि हमसों हँसि हँसिरी कछु बात कहीरी। काकेघर काके पित माता काके तनुकी सुराति रहीरी॥ अब समुझति कछु तेरी वाणी आई हौं लइ दही महीरी सुनहु सूर प्रातहिते आई यह कहि कहि जिय लाज गहीरी॥७॥ सुनरी सखी बात एक मेरी। तोसो धरौं दुराइ कहौं केहि तू जानहि सब चितकी मेरी॥ मैं गोरस लै जाति अकेली कालि कान्ह वहिया गही मेरी। हारसहित अचरा गहो गाढे एक कर गह्यो मटुकिया मेरी॥ तब मैं कह्यो खोझि हरि छांडहु टूटैगी मोतिन लर मेरी। सुरश्याम ऐसे मोहि रिझई कहा कहति तूमोसों मेरी॥८॥ तऊ न गोरस छाँड दयो। चहुँ फल भवन गह्यो सारंगरिपु वाजि धरा अथयो अमी वचन रुचि रचत कपटहठि झगरो फेरि ठयो। कुमुदिन प्रफुलितहौं जिय सकुची लै मृगचंदजयो॥ जानिशि सा शशिरूप विलोकत नवलकिशोर भयो। तबते सूर नेक नहिं छूटत मन अपनाइ लयो॥९॥ नट ॥ सखी वह गई हरिषै धाइ। तुरतही हरि मिलो ताको प्रगटकही सुनाइ। नारिएक अति परमसुंदरि वरन कापै जाइ। प्रातते शिरधरे मटुकी नंदगृह भरमाइ। लेहु लेहु
गोपाल कोऊ दह्यो गई भुलाइ। सूरप्रभु कहुं मिलें ताको कहति कार चतुराइ॥१०॥ कान्हरो ॥
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दशमस्कन्ध १०