कैसी घर कैहै॥ गुप्तप्रीति काहेन करी हरिसों प्रगट किए कछु नफा बढैहै। सूरश्यामसों प्रीति निरंतर लाजकिए अंतर कछु ह्वैहै॥९१॥ कहाकहति तूं मोहिरी माई। नँदनंदन मन हरि लियो मेरो तबते मोको कछु न सोहाई॥ अबलौं नहिं जानति मैं कोही कबते तू मेरे ढिग आई। कहां गेह कहां मात पिताहैं कहां सजन गुरुजनको भाई॥ कैसी लाज कानिहै कैसी कहा कहति ह्वैहै रिसहाई। अबतौ सूर भजी नंदलालहिकी लघुता की होउ बड़ाई॥ धनाश्री ॥ बार बार मोहिं कहा सुनावति। नेकहु टरत नहीं हृदयते अनेक भांति मनको समुझावति॥ दोबल कहा देति मोहिं सजनी तूतो बड़ी सुजान। अपनीसी मैं बहुतै कीन्ही रहति न तेरी आन॥ लोचन और न देखत काहू और
सुनत नहिं कान। सूरश्यामको वेगि मिलावहु कहति रहत घट प्रान॥९२॥ सबै हिरानी हरि मुख हेरे। चूंघट ओट पटओट करे सखि हाथो हाथन मेरे॥ कोहै लाज कौनको डरहै कहा कहै भयो तेरे। को अब सुनै श्रवनहै काके निपट निगमके टेरे॥ मेरे नैननहो नैननकी जोपै जानत फेरे सूरदासहै चेरी कीनी मन मनसिजके चेरे॥९३॥ नट ॥ मेरे कहेमें कोऊ नाहीं। कहा कहौं कछु कहि नहिं आवै नेकहुनहीं डराही॥ नए नए हरि दरशनलोभी श्रवण शब्द रसाल। प्रथमही मन गयो तनु तजि तब भई बेहाल॥ इंद्रियन पर भूप मनहै सबनि लिये बुलाइ। सूरप्रभुकोमिले सबए मोहिं करि गये बाइ॥९४॥ गौरी ॥ कहा करौं मन हाथ नहीं। तू मोसों यह कहत भलीरी अपनो चित मोहिं देत नहीं॥ नयन रूप अटके नहिं आवत श्रवन रहे सुनि बात तही। इंद्रीधाइ मिली सब उनको तनुमें जीव रह्यो संगही॥ मेरे हाथ नहीं ये कोऊ घटलीन्हे इक रहा मही। सुरश्याम संगते कहुँ टरत न आनि देहि जो मोहिं तुही॥९५॥ सारंग ॥ बिकानी हरिमुखकी मुसकानि। परखशभई फिरति संग निशि दिन सहजपरी यह बानि॥ नैषननि निरखि वसीठी कीन्ही मनु मिलियों पय पानि। गहि रतिनाथ लाज निज पुरते हरिको सौंपी आनि॥ सुनि सखि सुमुखी नँदनंदनकी दासी सब जग जानि। जोइ जोइ कहत करत सोईकृत आयसु माथे मानि॥ गईज्ञाति अभिमान मोह मद पति परजन पहिचानि। सूरसिंधु सरिता मिलि जैसे मनसा बूंद हिरानि॥९६॥ अबतो प्रगट भई जग जानी। वा मोहनसों प्रीति निरंतर क्यों वरहैगी छपानी॥ कहा करौं सुंदर सूरति इनि नयनानि मांझ समानी। निकसत नहीं बहुत पचिहारी रोम रोम अरुझानी॥ अब कैसे निरवारि जातिहै मिली दूध ज्यों पानी। सूरदास प्रभु अंतर्यामी उर अंतरकी मानी॥९७॥ कहा करैगो कोऊ मेरों। हौं अपने पतिव्रतहि न टरिहौं जग उपहास करौ बहुतेरो॥ कोउ किनलै पाछे मुख मोरै कोऊ कहै श्रवण सुनाइ नटेरो। हौ मति कुशल नाहिनै काची हरिसंग छांडिभिरो भवफेरो॥ अबतौ जी ऐसी बनिआई श्यामधाम मैं करौं बसेरो। तेहिरंग सूर रँग्यो मिलिकै मन होइ न श्वेत अरुन फिरि पेरो॥९८॥ धनाश्री ॥ माईरी गोविंदासों प्रीति करत तबहीं काहेन हटकीरी। यहतौ अबवात फैलि गई बई वीज वट कीरी॥ घर घर नित इहै घेर वानी घटघटकी। मैंतो यह सबै सही लोकलाज पटकी॥ मदके हस्ती समान फिराति प्रेम लटकी॥ खेलत में चूकि जाति होति कला नटकी। जल रजु मिलि गांठिपरी रसना हरि रटकी॥ छोरते नहीं छुटति कइकबरे झटकी॥ मेटे क्योंहू नमिटति छाप परी टटकी। सूरदास प्रभुकी छबि हिरदै मेरे अटकी॥९९॥ आसावरी ॥ मैं अपनो मन हरिसों जोरयो। हरिसों जोर सबनि सों तोरयो॥ नाच कछयो
घूंघुट छोरयो तब लोकलाज सब फटकि पिछोरयो॥ आगे पाछे नीके हेरयो। मांझवाट मटुकी शिर फोरयो॥ कहि कहि कासों करति निहोरयो। कहाभयो कोऊ मुख मोरयो॥ सूरदास प्रभु सों
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सूरसागर।