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(२५६)
सूरसागर।


॥ ॥ सारंग ॥ नेक नहीं घरमो मन लागत। पितामात गुरुजन परवोधत नीके वचन बाणसम लागत॥ तिनको धृग धृग कहति मनहि मन इनको वनै भलेही त्यागत। श्यामविमुख नर नारि बृथा सब कैसे मन इनिसों अनुरागत॥ इनको बदन प्रात दरशै जिनि बार बार विधिसों यह मांगत। यह तनु सूर श्यामको अर्प्यों नेक टरत नहिं सोवत जागत॥७९॥ धनाश्री ॥ पलकओट नहिं होत कन्हाई। घर गुरुजन बहुतै विधि त्रासत लाज करावत लांज न आई॥ नयन जहां दरशन हरि अटके श्रवन थके सुनि वचन सोहाई। रसना और नहीं कछु भाषत श्याम श्याम रट इहै लगाई॥ चितचंचल संगहिसंग डोलत लोकलाज मर्याद मिटाई। मन हरि लियो सूर प्रभु तबहीं तनु वपुरेकी कहा बसाई॥७६॥ बिलावल ॥ चली प्रातही गोपिका मटुकिनलै गोरस। नयन श्रवन मनचित बुधि ये नहिं काहूके वश॥ तनु लीन्हे डोलत फिरै रसना अटक्यो जस। गोरस नाम नआवई कोऊ लैहै हरिरस जीव परयो या ख्यालमें अरु गए दशादश॥ बझे जाइ खग वृंद ज्यों प्रिय छबि लटकनिलस॥ छांडिदेहु डरात नहिं कीन्हो पावै तस। सूरश्याम प्रभु भौंह की मोरनि फांसी गस॥७७॥ कान्हरो ॥ दधिबेचत ब्रज गलिन फिरैं। गोरसलेन बोलावत कोऊ ताकी सुधि नेकहु नकरैं॥ उनकी बात सुनत नहिं श्रवणनि कहति कहा ये घर नजरै। दूधदह्यो ह्यां लेत नकोऊ प्रातहिते शिरलिये ररैं॥ बोलि उठति पुनि लेहु गोपालहि घर घर लोक लाजनिदरैं। सूरश्यामको रूप महारस जाके बल काहू नडरैं॥७८॥ गोरसको निज नाम भुलायो। लेहु लेहु कोऊ गोपालहि गलिन गलिन यह सोर लगायो॥ कोऊ कहै श्याम कृष्ण कहै कोऊ आजु दरश नाही हम पायो। जाके सुधि तनकी कछु आवति लेहु दही कहि तिनहि सुनायो॥ एक कहि उठत दान मांगत हरि कहू भई की तुमहि चलायो। सुनह सूर तरुणी जोवनमद तापर श्याम महारस खायो॥७९॥ ग्वालिनि फिरति बेहालहिसों। दधि मटुको शिर लीन्हे डोलति रसना रटति गोपालहिसों॥ गेह नेह सुधि देह विसारे जीव परयो हरिख्यालहिसों। श्याम धाम निज वासरच्यो रचि रहित भई जंजालहिसों॥ छलकत तक उफनि अंग आवतनहिं जानति तेहि कालहिसों। सूरदास चित ठौर नहीं कहुँ मन लाग्यो नंदलालहिसों॥८०॥ मलार ॥ कोऊ माई लैहैरी गोपालहि। दधिको नाम श्याम सुंदररस विसरि गई ब्रजबालाहि॥ मटुकी शीशफिरति ब्रज वीथिन बोलत वचन रसालहि। उफनत तक चहूँ दिश चितवति चितलाग्यो नंदलालहि॥ हँसति रिसाति बोलावति वरजति देखहु उलटी चालहि॥ सूरश्याम विनु और नभावै याविरहनि वेहालहि॥८१॥ गौडमलार॥ ग्वालिनि प्रगट्यो पूरन नेहु। दधिभाजन शिरपर धरे कहति गुपालहि लेहु॥ वन बीथिन निजपुर गली जहाँ तही हरिनाउँ। समुझाई समुझत नहीं सिखदै विथक्यो गाउँ॥ कौन सुनै काके श्रवण काकी सुरति सकोच। कौन निडर डर आपको को उत्तम को पोच॥ प्रेमप्रिये वर वारुनी बलकत बल न सँभार। पग डगमग जित तित धरति मुकुलित अकल लिलार॥ मंदिरमें दीपक दिये बाहेर लखे न कोइ॥ तिन्है प्रेम परगट भए गुप्त कौनपै होइ॥ लज्जा तरल तरंगिनी गुरुजन गहैरी धार। दुहुँ कूल तरुनी मिली तिहि तरत न लागी वार॥ विधिभाजन ओछो रच्यो शोभा सिंधुअपार। उलटि मगनतामें भई तब कौन निकासनि हार॥ जैसे सरिता सिंधुमें मिली जु कूल विदारि। नाममिटयो सलिलै भई तब कौन निवेरै वारि॥ चितआकर्ष्यौ नंदसुत मुरली मधुर बजाइ। जिहिलज्जा जग लज्जियो सो लज्जागई लजाइ॥ प्रेम मगन ग्वालनि भई सूर सुप्रभुके संग। नैन वैन मुख नासिका ज्यों कंचुली तजै भुजंग॥८२॥